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________________ ॐ भेदविज्ञान की विराट् साधना 8 ४५५ 8 कैसे कर पाएगा? शरीर के साथ आत्मा का संयोग होने पर ही व्यक्ति धर्म-पालन या धर्माचरण मन-वचन-काया से कर सकेगा। अकेले निर्जीव शरीर से भी धर्म का आचरण या क्षमा, दया, समता आदि गुणों तथा व्रतों-महाव्रतों की साधना हो सकती है और न ही अकेली आत्मा इनकी साधना-आराधना कर सकती है। ऐसी स्थिति में शरीर से आत्मा को पृथक करने के भेदविज्ञान या सांख्यदर्शन के अनुसार विवेकख्याति का क्या तात्पर्य है ? इसका समाधान यह है कि शरीर से आत्मा को अलग कर देने का मतलब शरीर को नष्ट कर देना या शरीर से सम्बद्ध मन, वचन एवं इन्द्रियों तथा अंगोपांगों को छिन्न-भिन्न कर देना नहीं है; किन्तु शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति जो लगाव है, मोह-ममत्व है, आसक्ति और मूर्छा है अथवा घृणा और अरुचि है, राग-द्वेष है, प्रियता-अप्रियता की भावना है और उसके कारण आत्मा के प्रति जो विमुखता, उपेक्षा तथा आत्म-भावों या आत्म-गुणों को अपनाने के प्रति जो अरुचि या उदासीनता है; उसे छोड़ना है, उसे मन-वचन-काया से दूर करना है। एकमात्र शरीर के साथ आत्मा का जो एकत्व या तादात्म्य-सम्बन्ध मान रखा है अथवा अभिन्नता मान रखी है, उसे मन से निकाल देना है। शरीर के साथ अभेद-सम्बन्ध मानकर आत्मा की ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनन्द और बलवीर्य की शक्ति को भुला दिया गया है, उस गलत मान्यता को ठीक करना है। आत्मा ने इसी भ्रान्ति के कारण शरीर को अधिक से अधिक निकट सम्बन्धी, साथी या अपना मित्र मानकर अच्छे से अच्छे पदार्थों का सेवन कराया, शरीर को सर्दी, गर्मी, रोग, व्याधि, आतंक, भय, विपत्ति आदि से रक्षा करके जतन से रखा, शरीर की प्रत्येक अनुचित आवश्यकताओं, आकांक्षाओं एवं इच्छाओं की पूर्ति की; अब उस भ्रान्ति को तोड़ना है। शरीर से सम्बद्ध मन और इन्द्रियों का, अंगोपांगों का जो बाह्य विषयों या पदार्थों से राग-द्वेषादिपूर्वक लगाव या चेष्टा है उसे छुड़ाना है। शरीर के प्रति आत्मा के द्वारा अनिष्ट सम्बन्ध जोड़े जाने से आत्मा की शक्तियों का ह्रास हुआ है, उस अनिष्ट सम्बन्ध को तोड़ना है। यानी शरीर के साथ आत्मा ने मोह-माया का सम्बन्ध जोड़कर अब तक जो शरीर और इससे सम्बद्ध मन, इन्द्रियों आदि की गुलामी की, इनके कहने में लगकर अपनी तप, जप, धर्माचरण, परीषह-सहन की शक्ति कुण्ठित कर डाली, अब उस मोह-ममत्व-प्रेरित सम्बन्ध को तोड़कर शरीरादि की दासता छोड़कर उन पर स्वामित्त्व स्थापित करना है, उन्हें अपने नियंत्रण में रखना है। शरीरादि को तोड़ना-फोड़ना या नष्ट करना भी नहीं है और न ही शरीर को अधिक लाड़-प्यार करके, मोहवश पालना-पोसना है, उन्हें बुराइयों तथा पापचरणों में जाने से रोकना है तथा सम्यग्ज्ञानादि धर्माचरण में अधिक प्रवृत्त करना है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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