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________________ ॐ १८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 भी प्रवृत्ति करता है, जाग्रत अवस्था में करता है। उसकी विवेक चेतना जाग्रत रहती है। उन सम्यग्दृष्टि, सत्यनिष्ठ एवं सतत जागरूक पुरुषों का पुरुषार्थ सदा कर्ममुक्ति की दिशा में होता है, किन्तु अल्प प्रमत्त या गाढ़ प्रमत्त जीवों का पुरुषार्थ प्रमाद होने पर कर्मबन्ध की ओर होता है। जागरूकता आने से साधक अप्रमादपूर्वक लक्ष्य की दिशा में गति-प्रगति करता है और पाँचवाँ मोर्चा है-विकथा का। इसमें समय और शक्ति का बहुत ही अपव्यय होता है। फालतू गप्पों में, स्त्री, भोजन, राज और देश की राग-द्वेष, कामादिबद्धक कथाएँ धर्माचरण में पुरुषार्थ करने के बहुत से समय को बर्बाद कर देती हैं। इस प्रमाद के कारण व्यक्ति अपने आत्म-विकास व आत्म-कल्याण के लिये किये जाने वाले पुरुषार्थ को भूल जाता है। इसलिए अप्रमाद-संवर के साधक को इन प्रमादवर्धक तत्त्वों को मनमस्तिष्क में प्रवेश ही करने न देना चाहिए, आने लगे तब तत्काल 'जगह नहीं है' (No vacancy) का बोर्ड लगाकर रोक देना चाहिए। यतनाशील अप्रमत्त-साधक की विशेषता इस प्रकार साधक प्रत्येक प्रवृत्ति में यतनाशील रहे तो वह अप्रमाद-संवर की साधना में उत्तरोत्तर आगे से आगे बढ़ सकता है। 'निशीथभाष्य' में कहा गया है“यतनाशील साधक का कर्मबन्ध अल्प, अल्पतर होता जाता है और निर्जरा भी तीव्र, तीव्रतर होती जाती है। अतः वह शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है।" जिसके जीवन में अप्रमत्तता परिनिष्ठित हो गई है, “जो आत्म-साधना में अप्रमत्त-साधक है, वह न तो अपनी हिंसा (आरम्भ) करता है, न दूसरों की। वह सर्वथा अनारम्भ (अहिंसक) रहते हैं।"१ उस अप्रमत्त (जाग्रत) संयमी-साधक की विशेषता बताते हुए 'बृहत्कल्पभाष्य' में कहा गया है-“अप्रमत्त संयमी-साधक चाहे जान में (आपवादिक स्थिति में) हिंसा करनी पड़े या अनजान में करे, उस अन्तरग (अध्यात्मभाव) विशुद्धि के कारण निर्जरा ही होती है, कर्मबन्ध नहीं।" जैसा कि पहले कहा गया था-प्रमाद ही कर्म है, अप्रमाद कर्म नहीं है, वहाँ संवर-निर्जरारूप धर्म है।२ १. जे ते अप्पमत्तसंजया ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, जाव अणारंभा। -भगवतीसूत्र, श्रु. १, उ. १, सू. १६ २. (क) अप्पो बंधो जयाणं, बहुणिज्जर तेण तु मोक्खो। -निशीथभाष्य ३३३५ (ख) विरतो पुण जो जाणं कुणति अजाणं व अप्पमत्तो वा। तत्थवि अज्झत्थसमा, संजायति णिज्जरा, ण चयो॥ -बृहत्कल्पभाष्य ३९३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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