________________
आभ्यन्तरतप के सन्दर्भ मेंनिर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय :
विनय और वैयावृत्यतप
प्रायश्चित्त के पश्चात् विनयतप का क्रम क्यों ?'
आभ्यन्तरतप में प्रायश्चित्त के बाद विनयतप का क्रम रखा गया है। यह क्रम इसलिए रखा गया है कि प्रायश्चित्ततप के द्वारा जब मन, बुद्धि, चित्त और हृदयरूपी अन्तःकरण की गाँठें खुल जाती हैं, दुराव, छिपाव और माया के कारण होने वाली कर्मग्रन्थियों से साधक विमुक्त हो जाता है, सरलभाव से प्रायश्चित्त द्वारा आत्मा पर आई हुई अशुद्धि को दूर कर लेता है, तब उस आत्मा को अपने ज्ञान आदि आत्म-गुणों पर आये हुए मानकषाय के आवरण को दूर करना आवश्यक होता है। विनयतप मानकषाय की गाँठ को तोड़ने का अपूर्व आभ्यन्तरतप है। विनयतप की प्रक्रिया अहं की गाँठ को तोड़ती है। अहं की ग्रन्थि इतनी तीव्र और जटिल होती है कि यह आत्मार्थी और मुमुक्षु-साधक को पद-पद पर ज्ञानादि आत्म-गुणों की साधना में बाधक बनती है। विनयतप द्वारा अहं का विसर्जन किया जाता है। जिससे आत्मा पर छाये हुए कर्मावरण दूर हो जाते हैं, कर्मों की निर्जरा होने से आत्मा की निर्मलता बढ़ती है। विनय का अर्थ और परिष्कृत लक्षण
इसी कारण ‘स्थानांग वृत्ति' में विनय का अर्थ शब्दशास्त्र की दृष्टि से किया गया है जिससे आठ कर्म विशेष रूप से दूर होते हैं या किये जाते हैं, जिससे चार गतियों के अन्त करने वाले मोक्ष की उपलब्धि होती है, इसलिए उन्हें संसार का अन्त करने वाले सर्वज्ञ वीतराग पुरुषों ने विनय कहा है। ‘भगवती आराधना' के अनुसार-“अहंकारादिजनित कर्ममल का विलय-नाश करता है, इसलिए विनय कहलाता है। तथैव अशुभ क्रियाएँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के अतिचार = दोष हैं (ये अशुभ क्रियाएँ ज्ञानादि की शक्ति के प्रकटीकरण में बाधक होती हैं), इन्हें हटाना विनय है।” 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में विनय का विधायक स्वरूप बताते हुए कहा है-“दर्शन, ज्ञान, चारित्र के विषय में तथा बारह प्रकार के तप के विषय में
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org