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________________ * ३३६ कर्मविज्ञान : भाग ७ मन के समस्त शल्यों (त्रिविधभावशल्यों काँटों) को निकालकर आलोचना - निन्दना करता है, उसकी आत्मा उसी प्रकार हलकी हो जाती है जैसे सिर पर से भार उतार देने पर भारवाहक।"" = आलोचनादि प्रायश्चित्त एक प्रकार की आध्यात्मिक चिकित्सा है वस्तुतः आलोचनादिपूर्वक प्रायश्चित्त एक प्रकार की आध्यात्मिक चिकित्सा है। आत्मा में जब काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर, वासना, उत्तेजना, स्वार्थवृत्ति, पद-प्रतिष्ठा-लिप्सा, संग्रह- मनोवृत्ति आदि मानसिक विकृतियों के कारण अशुभ. कर्मरोग अपना डेरा जमा लेते हैं, तब उनके फलस्वरूप मन में चिन्तन, उद्विग्नता, दिमाग पर बोझ, तनाव, किंकर्त्तव्यमूढ़ता आदि उत्पन्न होने के कारण फिर हिंसा आदि अठारह पापकर्मों में से एक या अनेक जीवन में आध्यात्मिक रोग के रूप में. उभर आते हैं। भगवान महावीर ने इन आध्यात्मिक व्याधियों की चिकित्सा का सुन्दर, सचोट एवं सफल मनोवैज्ञानिक उपाय सुझाया था - आलोचना, निन्दना, गर्हणा, व्यावर्तना और आत्म-शोधन से युक्त प्रायश्चित्त तपः कर्म । इस उपाय से अनेक आत्मार्थी और मुमुक्षु-साधकों ने अपनी आत्मा की चिकित्सा करके स्वस्थता, निरोगता और आत्मिक सुख-सम्पन्नता प्राप्त की है। चूर्णि साहित्य में युक्तिसंगत दृष्टान्तों द्वारा इस तथ्य को समझाया गया है। प्रायश्चित्त चिकित्सा और मनोकायिक चिकित्सा की प्रक्रिया इस प्रकार हम देखते हैं कि आलोचनादि प्रायश्चित्त द्वारा कर्मरोगों की आध्यात्मिक चिकित्सा और वर्तमान युग के मनोकायिक रोगों (साइको - सोमेटिक डिजीज) की मानसिक चिकित्सा की प्रक्रिया में खास अन्तर नहीं है । वर्तमान युग में कई जटिल शारीरिक रोगों की चिकित्सा के लिए रोगी वैद्य, हकीम या डॉक्टर के पास जाता है। सब तरह की जाँच करवाता है और चिकित्सक के परामर्श के अनुसार दवा का सेवन और पथ्यपालन भी करता है, फिर भी रोग मिटने का नाम नहीं लेता । शारीरिक चिकित्सक इन रोगों पर नियंत्रण नहीं कर पाते। इसका कारण यह है कि उन रोगों का मूल कारण - ईर्ष्या, स्वार्थ, वासना, उत्तेजना, शोक, १. (क) आलोयणाए णं माया - नियाण-मिच्छादंसण - सल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अनंत-संसारबंधणाणं उद्धरणं करे | उज्जुभावं च जणयइ । उज्जुभाव- पडिवन्ने य णं जीवे अमाई इत्थीवेय-नपुंसगवेयं च न बंधइ । पुव्वबद्धं च णं निज्जरेइ । - उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. ५ (ख) उद्धरिय- सव्व - सल्लो, आलोइय-निंदिओ गुरुसगासे । होइ अतिरेग-लहुओ, ओहरिय-भरोव्व भारवहो ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - ओघनियुक्ति, गा. ८०६ www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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