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* सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप * ३०३ *
से सम्बद्ध समस्त सजीव-निर्जीव पदार्थों पर ममत्व-त्याग, अठारह पापस्थानों का परित्याग, आलोचना-प्रायश्चित्तादि द्वारा आत्म-शुद्धि एवं सर्वजीवों से क्षमापना करके एकमात्र शुद्ध आत्म-चिन्तन एवं परमात्म-स्मरण करना आवश्यक होता है। _इसलिए संलेखना-संथारा द्वारा समाधिमरण की साधना करने वाले यावज्जीव अनशन तपोव्रती साधक को सर्वप्रथम देहासक्ति छोड़ना आवश्यक होता है। देहासक्ति छूटे बिना उसके जीवन में समाधि लाने वाले चार कषायों तथा अठारह पापस्थानों का छूटना अवश्य ही कठिन है। जिनकी देहासक्ति नहीं छूटती, ऐसे संलेखना-संथारा के साधक आहार के बिना तो प्रायः नहीं घबराते, परन्तु देह से सम्बन्धित अन्यान्य बातों की स्मृति से रह-रहकर उनके मन में राग-द्वेष के या कषायों के बादल गर्जने लगते हैं, उनके सम्बन्धी या धर्म-संघ के सदस्य-सदस्याएँ भी कई बार पुनः-पुनः उक्त बातों को याद दिलाकर उनकी कषायों की स्मृति को सतेज करते रहते हैं। अतः साधक का मन, बुद्धि, चित्त, अन्तःकरण, देह और देह से सम्बद्ध 'जीवन की आशा और मरण के भय से विप्रमुक्त' नहीं हो पाता। या तो वह अत्यन्त सत्कार, सम्मान, जयनाद एवं प्रशंसात्मक वाक्य सुनकर अधिक जीने की आकांक्षा मन ही मन करता रहता है या गर्व-स्फीत हो जाता है अथवा शरीर में अधिक पीड़ा, चिन्ता, विषाद या भयवृत्ति हो तो शीघ्र ही मृत्यु की वांछा करता है और यह भी सत्य है कि देहासक्ति-परायण व्यक्ति को मृत्यु का संकेत प्राप्त होने पर भी या मरणासन्न स्थिति होने पर भी वह जीने का मोह नहीं छोड़ सकता। अतएव संलेखना-संथारा, जोकि अनेक पूर्वबद्ध कर्मों को काटने में सक्षम है, अंगीकार नहीं कर पाता और अन्त में, इन बाह्य अनशनादि तप से महानिर्जरा के चांस को खो बैठता है। . संलेखना-संथारे के समय देहासक्ति का पूर्णतः त्याग करने का पाठ
यही कारण है कि यावज्जीव अनशन व्रती साधक के लिए संलेखना-संथारा के पाठ में देहासक्ति या शरीरमोह को तोड़ना या छोड़ना अनिवार्य बताते हुए कहा गया है-"जो यह मेरा शरीर इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, धैर्यशील, विश्वसनीय, सम्मत, अनुमत, बहुमान्य, भाण्ड-करण्डक के तुल्य रहा है (इसके प्रति आसक्ति के कारण मैं इसकी रक्षा के लिए चिन्तित रहता था कि) इसे सर्दी,
१. (क) कसाए पयणू किच्चा अप्पाहारे तितिक्खए।
अहभिक्खू गिलाएज्जा, आहारस्सेव अंतियं ।। जीवियं नाभिकंखेज्जा, मरणं नावि पत्थए।
दुहओ वि न सज्जिज्जा, जीविए मरणे तहा।। (ख) जीवियास-मरणभय-विप्पमुक्को।
-आचारांग, श्रु. १, अ. ८, उ. ५
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