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ॐ २७८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
तप निर्जरा का कारण कैसे और कब ?
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि सम्यक्तप मोक्ष का मार्ग है, निर्जरा का कारण है। इसके सन्दर्भ में 'राजवार्तिक' में एक प्रश्न उठाकर समाधान दिया गया है कि "जो तप देव आदि स्थानों की प्राप्ति का कारण है, वह निर्जरा (कर्मक्षय) का कारण कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जैसे एक ही अग्नि से पाक (आहार पकाने) तथा भस्म करने आदि अनेक कार्य होते हैं, उसी प्रकार एक ही तप से अनेक उपलब्धियाँ हो सकती हैं। यह तो उपयोग करने वाले पर निर्भर है कि वह तपस्या का उपयोग किस प्रयोजन से करता है? जैसे किसान मुख्यतया धान्य के लिए खेती करता है, पराल आदि तो उसे यों ही मिल जाते हैं, उसी प्रकार तपःक्रिया तो मुख्यतया कर्मक्षय (निर्जरा) के लिये (भगवान ने बताई) है; अभ्युदय आदि की प्राप्ति तो उसका आनुषंगिक (गौण) फल है।" .. अल्पतम सिद्धि के लिए महान् साध्य को मत खोओ
इस पर से वीतराग तीर्थंकरों का स्पष्ट संकेत है कि जो सम्यक्तप मोक्ष का उपाय है, पवित्र साधन है, उसे अगर कोई भौतिक या सांसारिक लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा, सिद्धियों-लब्धियों की उपलब्धियों के लिए करना चाहे तो उसका यह मूढ़तापूर्ण कार्य तुच्छ लाभ के लिए महान् पदार्थ को खोना है। यह तो मानव-बुद्धि की नादानी है कि वह तुच्छ लाभ के लिए महान् आध्यात्मिक लाभ को खो देता है। इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने कहा-“अल्प (तुच्छ) सिद्धि के लिए महान साध्य को मत खोओ। तप से पूजा-प्रतिष्ठा आदि की कामना मत करो।"२ सम्यक्तप का एकमात्र उद्देश्य : आत्म-शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति
वास्तव में, जब कोई दृष्टिमूढ़ व्यक्ति अपने दुःखों, विपदाओं, संकटों आदि को मिटाने के लिए तथा स्वर्गादि सुख पाने की कामना से तप करता है तो वह यह भूल जाता है, जिन कर्मों के उदय से मुझे दुःख, संकट आदि प्राप्त हुए हैं, उनके निवारण का यह उपाय नहीं है, यह तो कर्मक्षय के बदले नये कर्मबन्ध का कारण
१. (क) धम्मो मंगलमुक्किटुं अहिंसा संजमो तवो। -दशवैकालिकसूत्र, अ. १, गा. १ (ख) नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा।
एस मग्गुत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि॥ -उत्तराध्ययन, अ. २८, गा. २ (ग) तपसोऽभ्युदयहेतुत्वान्निर्जरांगत्वाभावः, इति चेन्न, एकस्यानेककार्यारम्भ दर्शनात् । गुणप्रधान फलोपपत्तेः कृषीबलवत्।
-राजवार्तिक ९/३/४-५/५१३ २. (क) मा अप्पेण लुपहा बहु।
-सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. ३, उ. ४ (ख) नो पूयणं तवसा आवहेज्जा।
-वही, श्रु. १, अ. ७, गा. २७
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