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________________ ॐ २४२ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ * अच्युतकल्प देवलोक में उत्पन्न होते हैं, आराधक होते हैं। क्योंकि वे सकामनिर्जरा से अपने बहुत-से अशुभ कर्मों का क्षय कर देते हैं। प्रशस्तराग के कारण वे उत्कृष्ट पुण्यबन्ध के फलस्वरूप उत्कृष्टतः बारहवें वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं। अम्बड़ परिव्राजक तथा उसके शिष्यों की सकामनिर्जराराधना _ 'औपपातिकसूत्र' में काम्पिल्यपुर निवासी अम्बड़ परिव्राजक की चर्या का विस्तृत वर्णन है। उसने स्थूल प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह से विरमणव्रत स्वीकार किया तथा भिक्षाचर्या के तथा आहार-विहार आदि चर्या के कई नियम तथा तीन गुणव्रतों व चार शिक्षाव्रतों का भी पालन करता था। वह तथा उसके शिष्यों का यह नियम था कि पिपासा होने पर किसी दाता के दिये बिना पानी न लेना, न सेवन करना। एक बार कांपिल्यपुर से पुरिमताल नगर के लिए उन्होंने प्रस्थान किया। रास्ता काफी लम्बा था। बीच में बहुत लम्बा जंगल पार. कर रहे थे, उस समय उनके पास पहले ग्रहण किया हुआ पानी पीते-पीते क्रमशः समाप्त हो गया था। फिर वे परिव्राजक परस्पर विचार करके चारों तरफ पानी की खोज करने लगे, गंगा महानदी के किनारे पहुँचे, पर उन्हें अपने नियमानुसार बिना दिये पानी लेना न था। बहुत खोज करने पर भी दाता कोई भी नहीं मिला। अतः उन्होंने सबने अपने त्रिदण्ड, कुण्डिका, छत्र, वाहन, पादुका, धातुरक्त, अतिरिक्त वस्त्र आदि एकान्त में रखे तथा गंगा महानदी के उस पार बालू छिपी हुई थी, उसी पर अपनी-अपनी सीमित जगह में आसन जमाया। पूर्वदिशाभिमुख होकर शक्रस्राव का पाठ किया और जो पाँच अणुव्रत थे, उनकी जगह महाव्रत के रूप में तथा अठारह पापस्थानों का तथा चारों आहारों का यावज्जीव प्रत्याख्यान भगवान की साक्षी से किया। इस प्रकार शरीर के प्रति सब प्रकार से ममत्व का त्याग करके वे पादोपगमन संलेखना-संथारा करके स्थित हो गये। आलोचनादि से आत्म-शुद्धि करके समाधिपूर्वक यथासमय कालधर्म प्राप्त कर वे ही परिव्राजक दस सागरोपम की स्थिति वाले ब्रह्मलोक नामक देवलोक में उत्पन्न हुए। उनका यह तप एवं परीषह-सहन समभावपूर्वक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रपूर्वक था, इसलिए उनकी निर्जरा सकाम थी। वे सभी आराधक हुए। १. देखें-औपपातिकसूत्र में २०वाँ सूत्र पाठ अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया · · · · समणोवासगा भवंति · · · · अभिगयजीवाजीवा, उवलद्धपुण्ण-पावा, आसव-संवर-निज्जर-किरिया-अहिगरणबंधमोक्खकुसला आराहया, सेसं तहेव। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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