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________________ ॐ २४० 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ * दूसरी ओर ‘स्थानांगसूत्र' में वैयावृत्य से महानिर्जरा और महापर्यवसान (समस्त कर्मों का या जन्म-मरणरूप संसार का अन्त) बताते हुए कहा गया है-“पाँच-पाँच कारणों (स्थानों) से श्रमण निर्ग्रन्थ महान् कर्मनिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है, जैसे-आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान (रुग्ण या अशक्त), शैक्ष (नवदीक्षित), कुल (एक आचार्य के शिष्य-समूह), गण (अनेक कुल-समूह), संघ (अनेक गण-समूह) और साधर्मिक (समान धर्म एवं आचार वाले साधुवर्ग) की अग्लानभाव (प्रसन्न एवं शान्तभाव) से वैयावृत्य करता हुआ।' 'सूत्रकृतांग' में कहा है-"ग्लान साधु की अग्लानभाव से वैयावृत्य करे। २ स्पष्ट है कि सरागसम्यक्त्वी या सरागसंयमी भी उत्कृष्ट सकामनिर्जरा या अविपाक निर्जरा और उत्कृष्ट पुण्यबन्ध करके परम्परा से मोक्ष (सर्वकर्ममुक्ति) प्राप्त कर लेता है। किन्तु वीतराग सम्यग्दृष्टि तो उत्कृष्ट सकाम (अविपाक) निर्जरा से पुण्य और पाप (शुभाशुभ). दोनों कर्मों का सर्वथा क्षय करके उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। 'व्यवहारसूत्र' में स्पष्ट कहा है-“रुग्ण साथी की सेवा करता हुआ श्रमण महानिर्जरा और महापर्यवसान (महानिर्वाण) वाला होता है।"३ सकामनिर्जरा सम्यग्ज्ञानपूर्वक संवर सहित होती है छह प्रकार के बाह्य और छह प्रकार के आभ्यन्तर तप की सम्यग्ज्ञानसम्यग्दर्शनपूर्वक आत्म-शुद्धि के लक्ष्य से आराधना करने से सकामनिर्जरा होती है। इसके अतिरिक्त ‘समवायांगसूत्र' में निर्जरा (सकामनिर्जरा) के पाँच स्थान (कारण) बताये गये हैं, यथा-प्राणातिपात (हिंसा) से विरति, मृषावाद (असत्य) से विरति, अदत्तादान (चौर्यकर्म) से विरति, मैथुन (अब्रह्मचर्य) से विरति और परिग्रह (ममता-मूर्छापूर्वक वस्तु ग्रहण = रक्षण) से विरति। सम्यग्दृष्टि एवं सम्यग्ज्ञानपूर्वक प्राणातिपात आदि पाँचों आम्रवों व बन्ध कारणों से विरत रहने से सकामनिर्जरा होती है। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्राणातिपात आदि १. (क) देखें-द्रव्यसंग्रह टीका ३६/१५२/१ में निर्जरा सम्बन्धी नियम व शंकाएँ (ख) वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबंधइ। -उत्तराध्ययन, अ. २९, पृ. ४३ (ग) पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं.-अगिलाए आयरिय उवज्झाय थेर-तवस्सि गिलाणसेहकुल गण संघसाहम्मिय-वेयावच्चं करेमाणे। -स्थानांग, स्था. ५-५, उ. १, सू. ४४-४५ २. कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलाए समाहिए। ___ -सूत्रकृतांग ३. गिलाण-वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति। -व्यवहारसूत्र १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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