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ॐ निर्जरा के विविध स्रोत ॐ २३७ ॐ
की, बिलकुल निकट की आत्मा की दशा में होने वाली निर्जरा से असंख्यातगुणी निर्जरा समझना। प्रथम उपशम-सम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले तीन करण (यथाप्रवृत्ति, अपूर्व, अनिवृत्तिकरण) होते हैं। उनमें से अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में प्रवर्तमान विशुद्धि से विशुद्ध सम्यक्त्व-सम्मुख हुआ मिथ्यादृष्टि के आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की (अकाम) निर्जरा होती है, उसकी अपेक्षा असंख्यातगुणी (सकाम) निर्जरा अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान प्राप्त करते ही अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त समय-समय में होती है। अर्थात् सम्यक्त्व-सम्मुख मिथ्यादृष्टि की निर्जरा की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि के असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।
१२) पुनः वही जीव चारित्रमोहनीय कर्म के एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से परिणामों की विशुद्धि का प्रकर्ष होने से पंचम गुणस्थानवी श्रावक होता है, यानी उसमें जब श्रावकत्व प्रकट होता है, तब उसकी निर्जरा चतुर्थे गुणस्थान वाले से असंख्यातगुणी अधिक होती है।
(३) पुनः वही जीव (चारित्रमोहनीय कर्मवर्ती) प्रत्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की विशुद्धिवश विरतसंज्ञा (सर्वविरत) को प्राप्त होता हुआ उससे असंख्येयगुणी निर्जरा वाला होता है। ‘मोक्षशास्त्र' गुजराती टीका के अनुसार-पाँचवें गुणस्थान से असंख्यातगुणी निर्जरा सकल संयमरूप सप्तम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान प्रकट होता है तब होती है। पाँचवें के बाद सातवाँ गुणस्थान प्रकट होता है और फिर विकल्प उठने पर छठा गुणस्थान (प्रमत्तसंयत) आता है। सूत्र में केवल 'विरत' शब्द है, अतः उसमें सातवें और छठे दोनों गुणस्थान वाले जीवों का समावेश हो जाता है। - (४) पुनः वही जीव जब अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ की विसंयोजना करता है, अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्टय को शेष बारह कषायों तथा नौ नोकषायों के रूप में परिणमित कर देता है, तब परिणामों की विशुद्धि के प्रकर्षवश उन जीवों को अन्तर्मुहूर्त-पर्यन्त प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। अनन्तानुबन्धी की यह विसंयोजना चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें; इन चार गुणस्थानों में होती है। इन चारों गुणस्थानों में जो अनन्त वियोजक हैं, वे अपने-अपने गुणस्थान में अपने से पूर्व गुणस्थानों की निर्जरा की अपेक्षा असंख्यात-असंख्यातगुणी निर्जरा करते हैं।
(५) पुनः वही जीव दर्शनमोहनीयत्रिकरूपी तृणसमूह को भस्मसात् करता हुआ परिणाम-विशुद्धि के अतिशयवश दर्शनमोह-क्षपक (क्षायिक सम्यग्दृष्टि) संज्ञा को प्राप्त होता है, उसकी निर्जरा अनन्तानुबन्धी-विसंयोजक (अनन्तवियोजक) से असंख्यातगुणी अधिक होती है। सिद्धान्तानुसार क्रम ऐसा है कि पहले अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन करने के पश्चात् ही दर्शनमोहत्रिक का क्षय करता है।
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