________________
* १८० कर्मविज्ञान : भाग ७
अनुकम्पादान से पुण्यबन्ध होता है और पुण्यबन्ध से सातावेदनीयरूप फल की प्राप्ति होती है। तथैव ‘भगवतीसूत्र' के सप्तम शतक में कहे अनुसार दस बोलों से सातावेदनीय प्राप्त होता है। अतः चौबीस ही दण्डक (संसार के समस्त षट्कायिक जीव) सातावेदनीयकर्म (पुण्य) बाँधते हैं । 'भगवतीसूत्र' में कथित सातावेदनीयप्राप्ति के १0 बोलों का समावेश नौ प्रकार के पुण्यों में हो जाता है । '
इस पर से यह सिद्ध होता है कि नौ प्रकार का पुण्य बीज कोई भी जीव बो सकता है, बशर्ते कि शुभ भाव हो । शुभ-अशुभ भावों के अनुसार पुण्य-पाप की चौभंगी भी घटित होती है - ( १ ) पुण्यानुबन्धी पुण्य, (२) पुण्यानुबन्धी' पांप, (३) पापानुबन्धी पुण्य, और ( ४ ) पापानुबन्धी पाप । इन चारों भागों (विकल्पों ) का स्पष्टीकरण हम कर्मविज्ञान, भा. ३ - आम्रव और संवर में कर आये हैं । २ पुण्य का फल भी अपने-अपने भावों और पात्रादि के अनुसार न्यूनाधिक रूप में मिलता है। मनुष्येतर जीव भी पुण्य उपार्जन कर सकता है
·
वैसे तो नौ ही प्रकार के पुण्यों का उपार्जन मनुष्य-भव में प्रायः उपार्जित किया ही जा सकता है । परन्तु जो जीव प्रकृति का भद्र हो, विनीत हो, श्रद्धालु हो, दयावान हो; वह मनुष्येतर जीव भी पुण्य का उपार्जन कर सकता है। जैसे'ज्ञातासूत्र' में उल्लेख है कि मेघकुमार के जीव ने पूर्व-भव - हाथी के भव में, अनेक वनवासी पशु-पक्षियों पर विशेषतः एक खरगोश पर अनुकम्पा लाकर स्वयं २० प्रहर तक कष्ट सहकर उसे बचाया, अभयदान दिया। जिससे उसने मनपुण्य और कायपुण्य के रूप में पुण्य उपार्जन के फलस्वरूप शुभ मनुष्यायु का बन्ध किया और कतिपय अशुभ कर्मों के क्षय के कारण संसार परित्त किया।
पंच स्थावरकायिक जीव भी पुण्य उपार्जित करके सातावेदनीय का बन्ध कर सकते हैं
इस पाठ पद से स्पष्ट सिद्ध होता है कि पृथ्वीकायादि स्थावर जीवों रा अपनी काया से किसी भी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व को दुःख उत्पन्न न हो तो
१. (क) प्रश्नोत्तर - मोहनमाला' से भाव ग्रहण, पृ. १८५
(ख) (प्र.) कहन्नं भंते ! जीवा णं सायावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ?
(उ.) गोयमा ! पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए अलोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अधिट्टणयाए अपरियावणयाए, एवं खलु गोयमा ! जीवा णं सायावेयणिज्जा कम्मा कज्जति । ' एवं जाव वेमाणियाणं । - भगवतीसूत्र, श. ७, उ. ६, सू. २८५/१
२. देखें- 'कर्मविज्ञान, भा. ३' में पुण्य-पाप की चौभंगी के स्पष्टीकरण के लिए ३. देखें - ज्ञाताधर्मकथासूत्र, श्रु. १, अ. १ में मेघकुमार के पूर्व-भव का वृत्तान्त
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org