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________________ ॐ १५२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ * . ऐसे बुद्धओं को कौन समझाए कि यह तुम्हारा निरा अंहकार है, गर्वोक्ति है, मिथ्या मदान्धता है। दूसरे-तीसरे लोग जो भूलें करते हैं और उनसे उन्हें जो हानि उठानी पड़ती है, उससे कई गुना हानि तुम्हें दूसरे की भूलों को देखने और कहते रहने की गलत आदत से उठानी पड़ती है। दूसरे को अपनी भूल मालूम होने पर . कदाचित् नम्रतावश वह उसे सुधार सकेगा, मगर तुम अहंकार के घोड़े पर चढ़े हुए लोग अधिकाधिक आस्रवों और अशुभ कर्मबन्धों को निमन्त्रण देकर पापकर्म का बोझ ढो रहे हो; यह भूल उनकी भूलों से कई गुना अधिक है। याद रखिये, ऐसी पर-दोष दृष्टि से सभी जीवों के प्रति द्वेष, तिरस्कार, घृणा, शत्रुता या ईर्ष्यावृत्ति दिल में पैदा होती है, अज्ञातमन में उस पापकर्मबन्ध के गहन संस्कार' जमते रहते हैं और निमित्त मिलते ही कलह, युद्ध या संघर्ष के रूप में वैर-परम्परा की वृद्धि, यह कम हानि नहीं है। हर समय दूसरों के दोष, भूल, त्रुटि या गलती देखने की वृत्ति अत्यन्त भयंकर अशुभ कर्मों का बंध करती है, साथ ही उससे सभी जीवों के प्रति द्वेष, घृणा, तिरस्कार, अपमान और वैर-विरोध की वृत्ति मन-मस्तिष्क में अड्डा जमा लेती है। स्वयं में प्रचण्ड अभिमान भी मनुष्य को मिथ्यात्व की ओर ले जाता है। अनिवार्य परिस्थिति में दूसरे की भूल देखें, कहें या नहीं ? , - कई बार ऐसी परिस्थिति पैदा हो जाती है कि विद्यार्थी की भूल अध्यापक को, पुत्र की भूल पिता को, नौकर की भूल मालिक को देखनी और कहनी भी पड़ती है, यदि विद्यार्थी आदि को अध्यापक आदि देखे नहीं और कुछ कहे नहीं तो उन विद्यार्थी, पुत्र आदि के द्वारा भयंकर हानि भी हो सकती है। अतः विद्यार्थी, पुत्र या नौकर आदि ऐसी गम्भीर भूल न कर बैठें, यह सोचकर अध्यापक, पिता या मालिक आदि अपना कर्त्तव्य समझकर विद्यार्थी आदि को उनकी भूल न बताएँ तो वह भूल तिल का ताड़ बन सकती है, इसके अतिरिक्त विद्यार्थी, पुत्र आदि के विकास से ताला लग सकता है। इतना ही नहीं, विकास के बदले उनका भयंकर विनाश भी हो सकता है। इसलिए विद्यार्थी, पुत्र आदि की भूल जानना-देखना और उन्हें बताना नहीं, ऐसा एकान्त विधान नहीं हो सकता। भूल देखने, जानने और कहने का अधिकारी कौन ? परन्तु यहाँ प्रश्न यह होता है कि भूल देखने-जानने और कहने का अधिकारी कौन हो सकता है? वह कब कहे ? किन शब्दों में, कैसे-कैसे कहे? यह अवश्य १. 'हंसा ! तू झील मैत्री सरोवर में' से भावांश ग्रहण, पृ. १८३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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