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________________ ॐ योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल ॐ १२५ ॐ अपनी ही उन निरंकुश इच्छाओं और वासनाओं का गुलाम रहता है। वह अपने जाति, कुल, बल, रूप आदि के मद में छका हुआ और विलासिता में डूबा हुआ व्यक्ति दूसरों को केवल बिम्बभूत ही समझता है। उसकी दृष्टि में अपने से भिन्न व्यक्ति तुच्छ कीड़े-मकोड़े से ज्यादा महत्त्व नहीं रखता। ऐसे लोगों के काले कारनामे इतिहास में स्पष्ट रूप से अंकित हैं। रावण, जरासन्ध, दुर्योधन, नन्द सम्राट्, मुहम्मद गजनी, हिटलर, नादिरशाह, ये सब आखिर क्या थे? अशुभ योगों की धारा में स्वयं बहते गए और दूसरों को भी बहाते रहे। 'भगवद्गीता' में प्रतिपादित आसुरी प्रकृति के तथा तमोगुण-प्रधान व्यक्ति इसी अशुभ योगरत व्यक्ति की कोटि में आते हैं। __ परन्तु अन्त में, उनके इन अशुभ योगों के कारण आकर्षित हुए अशुभानव और पापकर्मबन्ध के फल उन्हें उसी रूप में मिले। उनके जीवन यहाँ भी पापकर्मों से कलंकित हुए और परलोक का जीवन भी उन्हें अत्यन्त दुःखों और यातनाओं से भरा मिला होगा। शुभ भावधारा से शुभानव, पुण्यकर्मबन्ध और शुभ योग-संवर ___ इन अशुभ भावधाराओं से निष्पन्न अशुभ योगों से ऊपर जो भावधारा है, वह है शुभ भावधारा। शुभ भावधारा जब पनपती है, तब व्यक्ति के मन में करुणा, दया, सहानुभूति, परोपकार, सहिष्णुता, उदारता, क्षमा, मृदुता, अहिंसा आदि की लहरें उठती हैं और क्रमशः विस्तृत होती जाती हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति का मन केवल अपने ही सुख या अपने ही तुच्छ स्वार्थ के लिए नहीं सोचता, वह दूसरों के सुख, स्वार्थ और उपकार की बात सोचता है। दूसरों की पीड़ा, दुःख, कष्टों को दूर करने-कम करने में निमित्त बनते हैं। भावों की धाराएँ जब शुभ होती हैं, तो उस व्यक्ति की वाणी में भी शुभ वाग्धारा बहती है, उसके शरीर से भी सेवा, दया, दान, अतिथि-सत्कार, बहुमान, विनय, भक्ति आदि की प्रवृत्तियाँ चलती हैं। वैसे तो शुभ योगों की धारा विविध रूप में असंख्य प्रकार की हो सकती हैं। एक ही व्यक्ति की दिनभर की वृत्ति-प्रवृत्तियों को टटोला जाए तो उसमें शुभ, अशुभ योग के कई रंग मिलेंगे। इसलिए शुभ योगों की धारा में पूर्ण निर्मलता नहीं आ पाती, उसमें शुभ-अशुभ योगों का उतार-चढ़ाव चलता रहता है। आखिर १. दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च। अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ ! सम्पदमासुरीम्॥४॥ -भगवद्गीता, अ. १६ देंखें-भगवद्गीता में आसुरी सम्पदा वाले लोगों के लक्षण, अ. १६, श्लो. ७-२० २. 'श्री अमर भारती', फरवरी १९९५ के अंक में प्रकाशित 'चैतन्य की तीन धाराएँ' लेख से भावांश ग्रहण, पृ. ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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