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________________ ॐ कामवृत्ति से विरति की मीमांसा ॐ ९३ ® उन्मुक्त यौनाचार, मुक्त कामक्रीड़ा, समलैंगिक व्यभिचार, बलात्कार आदि कामभोग-सेवन की विविध विधियाँ धड़ल्ले से चल पड़ी हैं। सेक्स को उत्तेजित करने वाली अश्लील पुस्तकों, उपन्यास आदि कामोत्तेजक घासलेटी साहित्य, पापकर्म के प्रति निःशंकता, सिनेमा, टी. वी. आदि दृश्यविधाओं के कारण होने वाले व्यभिचार के आधिक्य, वेश्यागमन-परस्त्रीगमन का निःशंक प्रचार आदि कामसेवन के विविध प्रचारों ने समग्र विश्व को आतंकित एवं रोगादि से आक्रान्त कर रखा है। सारा विश्व आज इस प्रकार के मुक्त व्यभिचार से आक्रान्त है। नवयुवकों और नवयुवतियों में कामुकता का यह रोग तेजी से फैलता जा रहा है। गर्भनिरोधक दवाइयों और साधनों के प्रचार ने मर्यादाहीन, उन्मुक्त व्यभिचार को और बढ़ावा दिया है। एड्स एवं कैंसर, टी. बी. (तपेदिक) आदि भयंकर बीमारियाँ इन्हीं का परिणाम हैं। कामवृत्ति की उच्छंखलता एवं मर्यादाहीनता के परिणामस्वरूप सारे राष्ट्र एड्स के इस भयंकर रोग से घबरा गए हैं। अणुबम के आतंक से भी भयंकर आतंक है एड्स रोग का। इस दानवीय रोग की रोकथाम के लिए सघन प्रयत्न सभी राष्ट्रों द्वारा किये जा रहे हैं फिर भी यह रोग अधिकाधिक फैलता जा रहा है। इसका एकमात्र कारण है-कामुकता की वृत्ति की निरंकुशता। अतः पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और जागतिक दृष्टि से विचार करें तो कामवृत्ति पर नियंत्रण करना अत्यन्त आवश्यक है। कामवृत्ति के प्रमुख उत्पादक काम-संवर (वेदत्रय-संवर) या कामवृत्ति पर नियंत्रण या निरोध से पूर्व कामवासना के उत्पादकों पर विचार करना अनिवार्य है। कामवासना पैदा होने के मुख्यतया दो कारण हैं-उपादान कारण और निमित्त कारण। इन्हें हम युग की भाषा में आन्तरिक कारण और बाह्य कारण भी कह सकते हैं। आन्तरिक कारण कार्मिक है-कर्मशरीरजन्य है, कर्मसंस्कार हैं। कर्मशास्त्र की भाषा में नोकषायमोहनीय के अन्तर्गत वेदमोहनीय के कर्मपरमाणु हैं। ये ही कामवृत्ति के मूल हेतु या मूल उत्पादक हैं। कामवृत्ति को जगाने में मूल कारण : आन्तरिक यों तो कामवृत्ति के जागने में शारीरिक और नैमित्तिक कारण भी होते हैं, परन्तु अगर आन्तरिक या मूल कारण न हो तो बाह्य कारण या बाह्य वातावरण कितने ही प्रबल और उत्तेजक हों, कामवृत्ति या कामवासना को नहीं जगा सकते, उद्दीप्त नहीं कर सकते। कामवृत्ति वास्तव में परिस्थितिजनित नहीं होती। परिस्थिति या वयस्कता उसके उद्दीपन में सहयोगी होती है, हो सकती है, परन्तु आन्तरिक परिस्थित या मनोदशा वेद (कामवृत्ति) मोहनीय से उत्तेजित या स्पन्दित न हो, तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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