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* ५१४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
तुम चाहो तो संवर और निर्जरा द्वारा नवीन आते हुए कर्मों का निरोध और पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करके अपनी आत्मा को ऊर्ध्वगति (मोक्षगति) में लोक के अग्र भाग पर ले जा सकते हो।
परन्तु वर्तमान युग के अधिकांश मानव चाहते तो अक्षय सुख हैं, परन्तु अनेक दुःखों के कारणभूत पापकर्मों को अपनाकर दुर्गति के द्वार खोलने का पराक्रम करते हैं। पापकर्म न करने का भगवान का उद्बोधन
इसीलिए भगवान महावीर ने उद्बोधन करते हुए कहा-“वह साधक जो पूर्वोक्त आदानीय (अठारह प्रकार के पापों से विरतिरूप संयम) को सम्यक् प्रकार से जानकर संयम-साधना के लिए समुद्यत हो गया है, (इसलिए) वह स्वयं पापकर्म न करे और न ही दूसरों से पापकर्म कराए (करने वाले की अनुमोदना भी न करे)।" आगे उन्होंने आत्मार्थी-साधक को यों चिन्तन करने के लिए कहा-“मैंने (मेरे इस जीव ने) आसक्तिवश अनेक प्रकार से बहुत-से पापकर्मों का बन्ध किया है", (ऐसा सोचकर) (उन कर्मों का क्षय करने हेतु) तू सत्य में धृति कर (दृढ़ हो), इस (सत्य) में स्थिर रहने वाला मेघावी समस्त पापकर्मों का शोषण (क्षय) कर डालता है। फिर भी पापकर्म क्यों और किसलिए करते हैं ? __इतना सावधान करने के बावजूद भी अधिकांश मानव अतीत में और वर्तमान में भी पापकर्म करते देखे जाते हैं। उन्हीं को लक्ष्य में रखकर 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है-"राग और द्वेष से अथवा स्व और पर के निमित्त से या इहलोक
और परलोक के लिए अथवा राग और द्वेष दोनों कर्मबीजों से जो हत-दुर्हत (कलुषित) है, वह (आत्मा) अपने वन्दन, सम्मान एवं पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए (हिंसादि अठारह प्रकार के पापों में) प्रवृत्त होता है। ऐसा करने में कितने ही लोग प्रसन्नता का अनुभव (प्रमाद) करते हैं।'
आशय यह है कि मनुष्य अपनी पूजा, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि एवं बहुमान के लिए बहुत ही आरम्भ-समारम्भ करता है, हिंसादि अठारह पापस्थानों का सेवन करता हुआ भी नहीं हिचकिचाता। उसके लिए बहुत ही आडम्बर और प्रदर्शन करता है। १. (क) से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं, समुट्ठाय, तम्हा पावकम्मं नेव कुज्जा, न कारवेज्जा।
-आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ.६ (ख) बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं, सच्चम्मि धिई कुव्वहा।
एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं झोसइ। -आचारांग, श्रु. १, अ. ३, उ. २