SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 533
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ पतन और उत्थान का कारण : प्रवृत्ति और निवृत्ति ॐ ५१३ ॐ जाता है। उसके पश्चात् दूसरा मिट्टी का लेप भी जब इसी प्रकार उतर जाता है, तब वह तुम्बा हलका होकर थोड़ा और ऊपर उठ जाता है। इस प्रकार आठों ही मिट्टी के लेप इसी उपाय से जब पानी में सड़-गलकर उतर जाते हैं, तब वह तुम्बा बन्धनमुक्त और हलका होकर नीचे के पृथ्वीतलों को क्रमशः लाँघता हुआ एकदम ऊपर सलिलतल (पानी के सतह) पर आ जाता है। हे गौतम ! इसी प्रकार जीव प्राणातिपात विरमण से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य-विरमण से क्रमशः आठों कर्मों की प्रकृतियों का क्षय करके (हलके होकर) क्रमशः आकाशतल को लाँघता हुआ ठठ ऊपर लोक के अग्र भाग में आकर स्थित हो जाता है। इस प्रकार, हे गौतम ! जीव लघुत्व (हलकेपन) को प्राप्त होते हैं। - निष्कर्ष यह है कि मिट्टी के लेप से लिप्त तुम्बा भारी होकर एकदम नीचे भूतल तक चला जाता है, इसी प्रकार आम्रवों के कारण कर्मों से गुरु (भारी) बने हुए जीव अधोगति में चले जाते हैं। इसके विपरीत, जैसे मिट्टी के लेपों से रहित एकदम हलका होकर तुम्बा जल की सतह पर स्थित हो जाता है, वैसे ही कर्मों के लेप से रहित-कर्म-विमुक्त होकर जीव क्रमशः लोक के अग्र भाग में जाकर स्थित हो जाते हैं। आशय यह है कि पापस्थानों के सेवन से पापकर्मों से भारी होने से जीव का अधःपतन हो जाता है और उन पापस्थानों से विरत होने से पापकर्मों से मुक्त जीव हलका होने पर उसका क्रमशः ऊर्ध्वगमन होता है। पापस्थानों के सेवन से आत्मा का अधोगमन, संसार-परिवर्धन, संसार-परिभ्रमण अप्रशस्त है, जबकि पापस्थानों से विरत होने से आत्मा का ऊर्ध्वगमन, संसार का परित्तीकरण (अल्पीकरण) तथा संसार-सागर से तरण प्रशस्त है। - कर्मविज्ञान की दृष्टि से भगवान महावीर ने उपर्युक्त समाधान द्वारा यह स्पष्टतः ध्वनित कर दिया है कि हे भव्यजीवो ! देवदुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर क्यों पापकर्मों के आचरण से आत्मा को भारी बनाकर जन्म-मरण बढ़ाते हो? क्यों संसार-परिभ्रमण का पथ जान-बूझकर लेते हो? इस समय तुम्हारे हाथ में बाजी है, १. (क) एवं खलु गोयमा ! से तुंबे एएणं उवाएणं तेसु अट्ठसु मट्टियालेवेसु तिन्नेसु जाव विमुक्कबंधणे अहे धरणियलपइवइत्ता उप्पिं सलिल-तलपइट्ठाणे भवइ। एवामेव गोयमा ! जीवा पाणाइवाय-वेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्ल-वेरमणेणं अणुपुवेणं अट्ठकम्मपगडीओ खवेत्ता गगणतलमुष्पइत्ता उप्पिं लोयग्ग-पइट्ठाणा भवंति। एवं खलु जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छति। (ख) जह मिउलेवालित्तं गरुयं तुंबं अहो वयइ एवं।। आसव-कय-कम्मगुरु जीवा वच्चंति अहरगइं॥१॥ तं चेव तस्विमुक्कं जलोवरिं ठाइ जायलहुभावं। जह तह कम्मविमुक्का लोयग्गपइट्ठिया होंति॥२॥ -ज्ञाताधर्मकथासूत्र, अ.६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy