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________________ ॐ अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ॐ ५०९ ® संसारमार्ग की.ओर ले जाने वाले हैं, उन्हें वह सच्चे देव-गुरु-धर्म मानने-जानने लगता है और सच्चे देव-गुरु-धर्म को झूठे। इसीलिए मिथ्यात्व गुणस्थान सबसे भयंकर अधोगामी है, आत्मा का परम शत्रु है, घातक है। आत्मा में यह काँटा जब तक दूर नहीं होता, तब तक शुद्ध धर्माचरण नहीं हो पाता। शास्त्रों में इस प्रकार मिथ्यात्व के १०, ५, ६, ३, २१ और सब मिलाकर . २५ भेद माने गए हैं। यहाँ इन सब की व्याख्या करने का अवकाश नहीं है।' मिथ्यादर्शनशल्य को निकालने के उपाय मिथ्यादर्शनशल्य को निकालने का सरल उपाय है-स्वाध्याय, सत्संग, देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा-भक्ति, यथाशक्ति बाह्य आभ्यन्तर तप करना, धर्माचरण में सम्यक् पुरुषार्थ करना, जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धा न करना, उन्हें जानना-मानना और समय-समय पर कर्मबन्ध से छूटने का उपाय सोचना, तत्त्वज्ञान के द्वारा आत्मा को मिथ्यात्व आदि सभी पापस्थानों से विरत करने का प्रयत्न करना। मूल तो पर-भावों का चिन्तन, पर-भावों में सुख मानने का मिथ्यादर्शन छोड़कर आत्म-भावों-आत्म-गुणों का चिन्तन-मनन करने से मिथ्यात्व रोग से मुक्ति मिल सकती है। क्रोधादि चार कषाय, राग, द्वेष, रति-अरति और मिथ्यादर्शनशल्य, ये पापस्थान मन से सम्बन्धित हैं। इसलिए मनःसंवर पर अधिक ध्यान देना चाहिए। १. मिथ्यादर्शन की विशेष व्याख्या तथा उसके विभिन्न भेदों के विषय में देखें-कर्मविज्ञान के . तृतीय भाग में आम्रव की आग के उत्पादक और उत्तेजक शीर्षक निबन्ध तथा छठे भाग में सम्यक्त्व-संवर से सम्बन्धित निबन्ध । २. (क) “पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण (ख) स्वाध्यायेन गुरोर्भक्त्या, दीक्षया तपसा तथा। येनकेनोद्यमेन मिथ्यात्व-शल्यमुद्धरेत्।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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