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________________ ॐ ५०० ® कर्मविज्ञान: भाग ६ ॐ रखता है, वही इस पापकर्म से सही-सलामत बच सकता है। समभाव = समतायोग ही रति-अरति के पाप से बचने की एकमात्र रामबाण औषध है। रति-अरतिजन्य सुख-दुःख या संयोग-वियोग की परिस्थिति में तत्त्वज्ञानपूर्वक मन को समझाकर समभाव में स्थिर करना चाहिए-“हे मन ! सुख में लीन मत बन और दुःख में दीन मत बन।" सुख-दुःख, संयोग-वियोग ये सभी द्वन्द्व कर्मजन्य हैं, यहाँ बाह्य सुख भी दुःखबीजरूप है। तेरा वास्तविक आत्मिक-सुख (आनन्द) तो तेरे पास है। साथ ही सुख-दुःख के निमित्त कारणीभूत जो पदार्थ हैं, वे भी अनित्य हैं, क्षणिक हैं, ऐसा विचार करके समभाव में स्थिर रहना चाहिए। तभी इस क्षुद्र पाप से बचकर शाश्वत सुख को जीव प्राप्त कर सकता है। सुलसा समता की साधना से रति-अरति दोनों ही प्रसंगों पर इनसे बच गई ___ महासती सुलसा श्राविका के कोई सन्तान नहीं थी तब भी उसे कोई दुःखे, चिन्ता, व्यथा नहीं थी। कर्मसिद्धान्त उसके जीवन में रमा हुआ था। उसके पति नाथ-सारथि ने दैवी-साधना से प्राप्त दिव्यफल लाकर सुलसा के खाने के लिये दिये। भवितव्यतावश सुलसा ने ३२ पुत्रों को जन्म दिया। ३२ पुत्र होने पर भी सुलसा को कोई हर्ष (रति) नहीं था। सभी लड़के बड़े होकर मगध सम्राट् श्रेणिक के अंगरक्षक वीर योद्धा बने। चेडा राजा के साथ कोणिक के युद्ध में वे ३२ ही पुत्र मारे गये। सुलसा को जब यह दुःखद सन्देश मिला, तब अंशमात्र भी उसे शोक (अरतिभाव) नहीं हुआ। उसने मन को समभावपूर्वक समझाया-संयोग और वियोग ये दोनों ही अवस्थाएँ अवश्यम्भावी हैं, इनमें रति-अरति करने से सिवाय कर्मबन्ध के कुछ पल्ले नहीं पड़ता। रति-अरति दोनों ही अवस्थाएँ दुःखदायिनी हैं। अतः इनमें समभाव रखना ही इस निरर्थक पापकर्म से बचने का उपाय है।२ आत्मरति-परायण समत्व के साधक के लिए क्या रति और क्या अरति ? 'आचारांगसूत्र' के अनुसार-“ऐसे साधक के लिए भला क्या अरति है और क्या आनन्द (रति) है? वह (रति-अरतिपूर्वक राग-द्वेष को ग्रहण न करने पर) अग्रह होकर विचरण कर पाता है।" मतलब यह है कि जिसे आत्म-ध्यान में ही आत्म-रति हो चुकी है, उसे बाह्य रति-अरति से कोई प्रयोजन नहीं रहता। संयम में . १. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण, पृ. ९७०-९७१ २. (क) आवश्यकचूर्णि (ख) 'पाप की सजा भारी, मा. २' से संक्षिप्त, पृ. ९४९
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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