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________________ ॐ अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ॐ ४९९ * ने पूछा-“तो आप उसके वियोग में रोए क्यों नहीं?" श्रावक जी बोले-“इसमें रोना क्यों चाहिए? उसकी आत्मा तो अजर-अमर शाश्वत है। यह शरीर उसने यहाँ बनाया था, जिसे यहीं छोड़कर वह चला गया है, साथ में नहीं ले गया है। फिर उसने अच्छा, पवित्र जीवन जीया है, अतः मुझे रोने की आवश्यकता ही क्या है ? जिस व्यक्ति को इस प्रकार का तत्त्वज्ञान पच गया है, उसे इष्ट-संयोग में रति और वियोग में अरति करने की आवश्यकता ही कहाँ है? दोनों ही स्थितियों में वह शान्तचित्त है, समभावी है, तत्त्वज्ञान से समृद्ध है। ऐसा समभावी व्यक्ति रति-अरति के प्रसंगों में विचलित न होकर समभाव में स्थित रहता है। रति-अरति की पाप प्रवृत्ति बंद करने से इस पापकर्मबंध से बच जायेगा रति-अरति के प्रसंगों में समभाव न रखने से पापकर्मों के बन्ध की परम्परा जन्म-जन्मान्तर तक चल सकती है। रति-अरति नोकषाय मोहनीय की प्रकृति है। आज किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति व्यक्ति रति-अरति रखता है, उससे फिर नोकषाय मोहनीय का प्रबल बंध होता है। फिर इसके उदय से आगामी जन्मों में इसी पाप के संस्कारवश फिर रति-अरति की प्रवृत्ति होती रहेगी। फिर उसी कर्म का बंध, उदय और फिर वही पापकर्म ! यों अनन्त जन्मों तक उसका अन्त नहीं आयेगा। अतः यदि आज और अभी रति-अरति की पाप-प्रवृत्ति बंद कर दी जाए तो अवश्य ही आगे यह पापकर्म नहीं बँधेगा। एक बार यदि पूरी आत्म-शक्ति से रति-अरति की पापवृत्ति-प्रवृत्ति से बच गया तो फिर आगे बचता ही जायेगा। अतः पापकर्म से बचने के लिये सर्वप्रथम रति-अरति की कल्पना से बचना अनिवार्य है। __ रति-अरति राग-द्वेष की पूर्वावस्था है रतिभाव राग की और अरतिभाव द्वेष की पूर्वावस्था है। रति के पीछे राग और अरति के पीछे द्वेष आता है। वस्तुतः रति-अरति ये दोनों राग-द्वेष की ही मन्द मात्रा है, यहीं से राग-द्वेष के बीज पनपते हैं। राग के बीज से रति के और द्वेष के बीज से अरति के अंकुर फूटते हैं। रति-अरति के लघु पाप के पीछे राग-द्वेष की विराट मोहनीय कर्म की महासत्ता तैनात रहती है। ___ रति-अरति पापस्थान से बचने का सरल उपाय . अतः जो व्यक्ति रति-अरति को महत्त्व न देकर उन्हें नगण्य समझता है, सुख-दुःख, हर्ष-शोक, प्रीति-अप्रीति का भाव न लेकर दोनों प्रसंगों में समभाव १. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. ९४५, ९५७, ९५८
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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