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________________ 8 ४८६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * चुगलखोरी से हानि - यद्यपि चुगलखोरी से व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होता, फिर भी इस दुर्व्यसन से वह छूटता नहीं। समाज में या सभा-सोसाइटियों में उसकी कोई इज्जत नहीं होती। वह चुगलखोरी के साथ कई पापों का भागी बन जाता है। पैशुन्यवृत्ति भी मोहनीय कर्मबन्ध का कारण हैं। अभ्याख्यान और पैशुन्य से बचने के उपाय - अभ्याख्यान और पैशुन्य, इन दोनों पापों से बचने के लिए वाणी संयम सबसे अच्छा उपाय है। किसी के विषय में मिथ्या दोषारोपण करने से पहले सौ बार विचार करना चाहिए। अपनी विचार-शक्ति को सजग रखना चाहिए। कोई कुछ भी कह दे, उसकी बात झटपट मान नहीं लेनी चाहिए। __ मैत्रीभाव. मन में रखकर हृदय की विशालता रखनी चाहिए। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की वृत्ति रखनी चाहिए। व्यक्ति को गम्भीरता धारण करनी चाहिए। पैशुन्यवृत्ति वाले व्यक्ति की बातों में सहसा नहीं आना चाहिए। अभ्याख्यान और पैशुन्य के पाप में स्वयं को न तो लगना चाहिए और न ही अभ्याख्यानी और पैशुन्यवृत्ति वाले व्यक्ति के चक्कर में आकर उसके प्रवाह में बहना चाहिए। हृदय की विशालता और स्वभाव की गम्भीरता से व्यक्ति इन पापों का शिकार होने से बच सकता है। उदार धार्मिकभावना ही व्यक्ति को इन पापस्थानों से बचा सकती है। आत्मौपम्यवृत्ति से ही व्यक्ति इन पापों से बच सकता है। ऐसा करने से व्यक्ति अशुभ कर्म के आगमन को रोक सकेगा। पर-परिवाद भी भयंकर पापस्थान पर-परिवाद (पर-निन्दा) तो स्पष्ट ही आत्मवाद को छोड़कर दूसरों के विषय में निन्दा, विकथा करने से होता है। पर-परिवाद का अर्थ है-दूसरों की निन्दा करना। इस पापस्थान का सेवन करने वाला भी स्व (अपनी और अपनों) की रागभाववश प्रशंसा करता है और जो अपने से भिन्न परिवार, जाति, सम्प्रदाय, पंथ, मत या प्रान्त व राष्ट्र आदि के हैं या जो अपने माने हुए नहीं हैं, उनकी द्वेषवश निन्दा या विकथा करता है, उन्हें बदनाम करने, उन पर से लोगों की श्रद्धा डिगाने का प्रयत्न करता है। यह घोर पापकर्म है, मोहनीय कर्मबन्ध का कारण है। 'सूत्रकृतांगसूत्र' में स्पष्ट कहा है-“जो “स्व' (अपने मन) की प्रशंसा और 'पर' की गर्हा (निन्दा) करते हैं, वे राग-द्वेष के शिकार होकर संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं।" 'तत्त्वार्थसूत्र' में कहा गया-“पर-निन्दा और अपनी प्रशंसा एवं दूसरे के विद्यमान सद्गुणों को ढाँकना और उसके दुर्गुणों और उसमें जो दुर्गुण नहीं हैं, उन्हें
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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