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________________ ॐ ४८४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ . अभ्याख्यानी में क्रोध, मान, द्वेष अधिक मात्रा में रहता है, जबकि पैशुन्यवृत्ति वाले में माया-कपट, ईर्ष्या और लोभ का अंश रहता है। दोनों ही मृषावाद के तथा ईर्ष्या, द्वेष, मात्सर्य और तेजोद्वेष, पर-द्रोह तथा छिद्रान्वेषण के पापों के ग्राहक हैं। परन्तु अभ्याख्यान और पैशुन्य ये दोनों पापकर्म होते हैं-स्व (आत्मा) को न देखकर पर को देखने से ही। पैशुन्यवृत्ति का दुर्व्यसन जीवन को नरक बना देता है । वस्तुतः पैशुन्यवृत्ति वाले में गुणानुराग नहीं होता, वह अधिकतर दोषदृष्टि-परायण होता है। वह अपने मन में पाले हुए द्वेष, ईर्ष्या और छल को सफल करने के लिए भोलेभाले, सीधेसादे, सज्जन एवं सरलात्मा लोगों को अपना शिकार बनाता है, उनके कान में मीठे-मीठे शब्दों से जहर भरता है, दूसरों के मर्मों का उद्घाटन करता है। वह कहीं से किसी के विषय में थोड़ा-सा सुनकर अपनी ओर से नमक-मिर्च लगाकर दूसरे के कान भरता है। ऐसा व्यक्ति शत्रु का कार्य करता है और वचन से मित्र बनकर रहता है। चुगलखोर व्यक्ति पति-पत्नी में, भाई-भाई में, माता-पिता में, पति और सास में एक-दूसरे की चुगली खाकर लड़ा देते हैं। चुगलखोरी एक प्रकार का दुर्व्यसन है। चुगलखोर की आदत हो जाती हैबार-बार चुगली खाने की। प्रतिदिन उसे इस व्यसन का पोषण करना ही पड़ता है।' चुगलखोर राग, द्वेष, कषाय एवं स्वार्थभाव से प्रेरित होकर दूसरों के विषय में लोगों को झूठी-सच्ची बातें कहकर भड़काता है। उन्हें बदनाम करता है, उन पर से लोगों की श्रद्धा डिगाता है। यह भी मोहनीय कर्मबन्ध का कारण है। पैशुन्यवृत्ति के साथ-साथ अनेकों पाप और दुर्गुण चुगलखोर असत्यवाद का सेवन स्वयं तो करता है, साथ ही हजारों आदमियों को झूठे मार्ग पर लगाने तथा उनके मन में द्वेष, वैर-विरोध, वैमनस्य, संक्लेश, संताप, कलह आदि तथा क्रोधादि कषायों को पैदा करने का भी कारण बनता है। ये लोग परिवार, समाज, संस्था, प्रान्त, राष्ट्र या पंचायत में क्लेश, कषाय, वैमनस्य, वैर और कलह के बीज बो देते हैं। इतने पापकर्मों का बोझ सिर पर लादे फिरता है-पैशुन्य का व्यापार करने वाला व्यक्ति। किसी ने कहा भी है-“जो मनुष्य दूसरों को तपाने-सताने के लिए पैशुन्यवृत्ति का सेवन करता है, वह स्वयं (उसकी आत्मा) भी उसी ताप से तप्त होता है।"२ पैशुन्यवृत्ति के दुष्परिणाम बताते १. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. ९१८-९१९ २. अन्यस्य तापनाद्यर्थं पैशुन्यं क्रियते जनैः। स्वात्मा हि तप्यते तेन, यदुक्तं स्यात् फलं च तत्॥
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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