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ॐ धर्म और कर्म : दो विरोधी दिशाएँ 8 २७ 8
प्रकार मैं सुखी, मैं दुःखी, मैं रोगी, मैं नीरोगी, मैं खुश, मैं नाराज इत्यादि द्वन्द्व भी मोहकर्म की देन है।
___मोहनीय कर्म का कार्य मूर्छित, मूढ़ और विकृत करना है यह मोहनीय कर्म ही है, जो व्यक्ति की चारित्र की शक्ति को भी कुण्ठित, अवरुद्ध एवं विकृत कर देता है। जिस प्रकार मदिरा पीने से व्यक्ति भान भूल जाता है, मूर्छित हो जाता है तथा आचरण और व्यवहार सही नहीं कर पाता, उसी प्रकार मोहमदिरा पीकर भी व्यक्ति अपना आत्म-भान भूलकर प्रमत्त, उन्मत्त, मदोन्मत्त या इन्द्रिय-विषयासक्त हो जाता है, जिससे वह न तो शुद्ध आचरण कर पाता है और न ही अच्छा व्यवहार कर पाता है और न वह अपनी शक्ति तपश्चर्या, त्याग, व्रतनियम-पालन आदि में लगा सकता है। यह सब मोहकर्म का कार्य है।
चारित्रमोहनीय कर्म और संवर-निर्जरारूप धर्म का फल इसके विपरीत ज्ञानादि रत्नत्रयरूप अथवा संवर-निर्जरारूप धर्म के आचरण से सम्यग्दृष्टि प्राप्त करके व्यक्ति मिथ्यात्व से छुटकारा पा लेता है तथा व्रताचरण अहिंसादि-पालन, तप, संयम, समभाव आदि में पुरुषार्थ करके चारित्रमोहनीय कर्म की निर्जरा (अंशतः क्षय) कर लेता है। मोहजनित कषायों और नोकषायों का धैर्यपूर्वक निरोध करके संवर (कर्मानव-निरोध) करता है। अपने पर आने वाले कष्टों, परीषहों, विपदाओं, संकटों और उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करके निर्जरा करता है। परन्तु मिथ्यादृष्टि या अज्ञानी व्यक्ति मोहनीय कर्म के उदय से संकट, कष्ट, उपसर्ग या परीषह आने पर घबरा जाता है, समभावपूर्वक सहने की अपेक्षा हायतोबा मचाता है; निमित्तों को, भगवान को, काल को अथवा कर्म को कोसता है, वह अपने उपादान को नहीं देखता कि मैंने ही इस प्रकार का कोई अशुभ कर्म किया होगा, वही कर्म उदय में आया है। अगर मैं समभाव से, शान्ति और धैर्य के साथ उसका फल भोग लेता हूँ तो पूर्वकृत वह कर्म अपना फल भुगवाकर नष्ट (निर्जीर्ण) हो जाएगा, नया कर्म नहीं बँधेगा, किन्तु यदि मैं हाय-हाय करता हुआ, निमित्तों आदि को कोसता हुआ भोगूंगा तो पुराना कर्म पूरी तरह से क्षय नहीं होगा, नया कर्म और बँध जाएगा जिससे उसी कर्म का कटुफल पुनः-पुनः भोगना पड़ेगा। उस समय यह सोचे कि शान्तिपूर्वक भोगूं या अशान्तिपूर्वक, मुझे कटुफल भोगना तो पड़ेगा। मेरे द्वारा ही किया हुआ कर्म मुझे ही भोगना है, इसी में आत्मा की विजय है, समुत्कर्ष है अथवा उदय में आने से
१. 'कर्मवाद' से भावांश ग्रहण, पृ. ६०