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ॐ विरति-संवर : क्यों, क्या और कैसे ? ॐ ४२७ *
परलोक में गर्हणीय-निन्दनीय बताते हुए कहा है-“शीलरहित, व्रतरहित, गुणरहित, मर्यादारहित एवं प्रत्याख्यान तथा पौषधोपवास से रहित व्यक्ति के तीन स्थान गर्हित (निन्द्य) होते हैं-(१) इहलोक (वर्तमान भव), (२) उपपात (देवों और नारकों में जन्म), तथा (३) आगामिजन्म (देव या नरक भव के पश्चात् होने वाला मनुष्य या तिर्यंच भव) भी गर्हित होता है। वहाँ भी उसे अधोदशा प्राप्त होती है।"१
सुविधावाद के साथ स्वच्छन्द भोगवाद की लहर आई प्राचीनकाल में चार्वाकदर्शन भी भारत में एक बार प्रचलित हुआ था, जिसका मत था-"जब तक जीओ, सुख से जीओ, कर्ज करके भी घी पीओ।"२ उसकी छाया पश्चिमी देशों के लोगों पर पड़ी-Eat, drink and be merry (खाओ, पीओ
और मौज उड़ाओ) के रूप में। भारतवर्ष में भी मुगल शासनकाल में तथा ब्रिटिश शासनकाल में उसी भोगवाद और सुविधावाद की लहर आई। उसके प्रवाह में बहकर वर्तमान युग के अधिकांश व्यक्ति भोगोपभोग से विरतिरूप-संवर से कतराने लगे और कहने लगे-“हम क्यों अपने भोगोपभोग पर नियंत्रण करें? क्यों सुविधा पर प्रतिबन्ध लगाएँ? क्यों अभाव का जीवन जीकर दुःख उठाएँ? क्यों व्रत-नियम, त्याग-प्रत्याख्यान करके अपने आप को बन्धन में डालें ?
व्रत-नियम आदि बन्धनरूप नहीं, रक्षणरूप हैं :वास्तव में देखा जाए तो सुख और शान्ति के लिए तथा अपने जीवन को उपर्युक्त दुर्गुणों से बचाने हेतु अपने आसपास व्रत-नियमों का सुदृढ़ किला बाँधना अनिवार्य है। लोक-व्यवहार में भी सुरक्षा के लिए कितने ही बन्धन स्वीकारने आवश्यक होते हैं। बीमारी पड़ने पर रोगी को डॉक्टर के द्वारा कुपथ्य से बचने और पथ्य आहार एवं दवा लेने का बन्धन स्वास्थ्य को नष्ट करने वाला नहीं, अपितु स्वास्थ्य की सुरक्षा करने वाला होता है। क्या इससे कोई भी सुविधावादी इन्कार कर सकता है? तिजोरी का बन्धन जवाहरात की सुरक्षा के लिए क्या अनिवार्य नहीं है ? पशु को घर में खूटे से नहीं बाँधा जाए तो उस आवारा भटकते ढोर को बाड़े (काजी होज) में बंद कर दिया जाता है। कुत्ते के गले में पट्टे का बंधन न हो तो नगरपालिका के कर्मचारी उसे पकड़कर बंद कर देते हैं या भोजन
१.. तओ ठाणा णिस्सीलस्स णिव्वयस्स णिगुणस्स णिमेरस्स णिप्पच्चक्खाण-पोसहोववासस्स
गरहिता भवंति, तं.-अस्सिं लोगे गरहिते भवति, उववाते गरहिते भवति, आयाती गरहिता .. भवति।
-स्थानांग, स्था. ३, उ. ३, सू. ३१५ २. यावज्जीवेत् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥