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ॐ विरति-संवर : क्यों, क्या और कैसे? * ४२३ *
ज्ञानपूर्वक अभावयुक्त जीवन जीने वाला दुःखी नहीं यह तो भलीभाँति जान लेना चाहिए कि स्वेच्छा से गरीबी धारण करने से या अभाव में जीने से अथवा स्वेच्छा से किसी वस्तु से विरत होने का व्रत स्वीकार करने से कोई भी व्यक्ति दुःखी नहीं होता। व्यक्ति दुःखी होता है-अज्ञान से, मिथ्यादर्शन से अथवा त्याग, प्रत्याख्यान, व्रत, नियम आदि स्वेच्छा से सोचसमझकर स्वीकार न करने से अथवा स्वीकृत त्याग, प्रत्याख्यान, नियम, व्रत आदि स्वेच्छा उत्साह और उल्लास के साथ पालन न करने से। जो व्यक्ति अज्ञान, अन्ध-विश्वास और बहकावे में, साम्प्रदायिकता-जातीयता आदि के पूर्वाग्रह में या मिथ्यादर्शन में जीता है, वही अपने मन पर ऐसी मिथ्या धारणाओं, परम्पराओं और मान्यताओं के वजनी पत्थर रख लेता है; उसे ही हर कदम पर दुःखानुभव होता है। अभाव आदि वस्तुएँ अलग हैं और दुःखानुभव अलग है। कई साधक अभावयुक्त जीवन जीते हुए भी सुखी जीवन जीते हैं, इसके विपरीत, कई व्यक्ति भावयुक्त (साधन-सामग्री से परिपूर्ण) जीवन जीते हुए भी दुःखी हैं। अभावयुक्त जीवन जीने से या स्वेच्छा से गरीबी का (अपरिग्रह या परिग्रह-परिमाण) व्रत स्वीकारने से दुःख होता तो वीतराग पथानुगामी साधु-संन्यासी सबसे ज्यादा दुःखी होते। क्योंकि उनके पास न ही अपना मकान है, न ही प्रचुर भोजन का संग्रह है, न ही जीवन-निर्वाह की विभिन्न वस्तुएँ खरीदने के लिए धन है, न ही सवारी का साधन है, न ही वस्त्र-संग्रह है, एक तरह से देखा जाए तो साधु का जीवन अभावयुक्त है, गरीबी का जीवन है, उसके पास में कुछ भी नहीं, फिर भी वीतराग-पथ का संयमी यात्री बाह्य पदार्थों के अभाव में भी सन्तुष्ट, तृप्त, सुखी और शान्त है, क्योंकि उसकी आन्तरिक ऋद्धि बढ़ी हुई है। जैसे वीतराग तीर्थंकर भगवान को आन्तरिक जगत् की सारी सम्पदासम्पन्नता उपलब्ध हो जाती है, उसी तरह वीतराग पथानुगामी साधुवर्ग के भी आन्तरिक सम्पदा अकूत होती है, बाह्य सम्पन्नता न होते हुए भी वे आत्म-तृप्त होते हैं; अत्यन्त सुखी और सन्तुष्ट होते हैं। अन्तर्जगत की अपार सम्पदा तभी बढ़ती है, जब बाह्य जगत् के पदार्थों से स्वेच्छा से विरति हो। आज के सामान्य व्यक्ति को भी सारी सुख-सुविधाएँ, बाह्य सम्पन्नताएँ प्राप्त हैं, जोकि पुराने जमाने में बड़े-बड़े सम्राटों को प्राप्त नहीं थीं। फिर भी आन्तरिक सम्पदा के अभाव में आध्यात्मिक जगत् से परिचित न होने से त्याग, तप, व्रत, नियम की शक्ति न बढ़ने से वह विपन्न है, दुःखी है, अशान्त है। जबकि साधु या विरति-संवर-साधक को बाह्य सम्पदा या पदार्थों के अभाव के कारण वस्तु की कमी हो सकती है, गरीबी हो सकती है, किन्तु समभावी और विरति-संवर के साधक की ओर से न तो अभाव के विषय में कोई शिकायत होती है, न ही राग-द्वेषयुक्त या प्रियता-अप्रियतायुक्त प्रतिक्रिया होती है।