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________________ ॐ ३५० ® कर्मविज्ञान : भाग ६ * परीषह-सहन कष्ट-सहिष्णुता बढ़ाने के लिए है __ अतः परीषह कष्ट-सहन करने के लिए नहीं, अपितु तितिक्षा-शक्ति बढ़ाने के लिए है। जब तक कष्ट-सहन करने की क्षमता नहीं बढ़ती, तब तक व्यक्ति कष्ट और दुःख को मन पर लेकर तथा भविष्य के दुःखों की कल्पना करके अत्यधिक व्यथित और दुःखित होता रहता है, उसे आत्मिक सुख का अनुभव नहीं होता, जो आत्मा का स्वाभाविक एवं निजी गुण है। पदार्थजनित सुख के बाह्य साधन होते हुए भी सहिष्णुता का अनभ्यासी व्यक्ति मन ही मन अनेक प्रकार से चितिन्त, व्यथित, उद्विग्न और आकुल-व्याकुल होता रहता है। ___ इसलिए जो यह कहते हैं कि सर्दी, गर्मी, भूख-प्यास. आदि विविध द्वन्द्वों को सहन करने की क्या आवश्यकता है? हम विविध साधनों से सर्दी-गर्मी आदि मिटा लेंगे। इन सब द्वन्द्वों का उन उपायों के सामने कोई वश नहीं चलेगा।” परन्तु पूर्वबद्ध अशुभ कार्यों का उदय हो तो क्या इन द्वन्द्वों को मिटाया जा सकेगा? फिर कितना ही खा लेने पर, गरिष्ठ एवं स्वादिष्ट पदार्थों का उपभोग कर लेने पर भी भूख, रोग, प्यास आदि दुःख नहीं मिट सकेंगे। इन पूर्वबद्ध कर्मजनित दुःखों-कष्टों को मिटाने का उपाय है-कष्टों-दुःखों को समभावपूर्वक प्रसन्नता से सहना। अतः परीषहरूप कष्ट कष्ट के लिए नहीं, किन्तु कष्टों को मिटाने के लिए सहना आवश्यक है। परीषह-विजय कर्मजनित दुःखों से मुक्ति का पथ है .. सारा संसार कर्मजनित दुःखों से आक्रान्त है, व्याकुल है, पंचेन्द्रिय विषयों के उपभोग के साधन तथा बाह्य साधन होते हुए भी व्यक्ति आधि, व्याधि और उपाधि से त्रस्त है। ऐसी स्थिति में परीषह-सहन या परीषह-विजय का पथ इन कर्मजनित दुःखों से मुक्ति का मार्ग है। यह कष्टों को आमंत्रित करने का मार्ग नहीं है। बल्कि आन्तरिक शक्ति, आत्मिक आनन्द (सुख) बढ़े, मनोबल बढ़े, ज्ञानदर्शन का आवरण आंशिक रूप से अधिकाधिक हटने पर सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन का प्रकाश बढ़े, कषायों एवं राग-द्वेषों का आवेग क्रमशः मन्द हो, अनाकुलता बढ़े, इसके लिए परीषहरूप कष्ट सहना अत्यावश्यक है। परीषह-विजय का यह रहस्य पकड़ में आ जाए तो आज जो मार्ग अटपटा और दुष्कर लगता है, वह आनन्ददायक, सुख-शान्तिप्रदायक एवं आत्मिक-शक्तिवर्द्धक प्रतीत होगा। परीषह-सहन के दो उद्देश्य : मार्गाच्यवन और निर्जरा जैन-कर्मविज्ञान में केवल कर्मों के आने और बाँधने का ही निरूपण नहीं है,
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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