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________________ * परीषह-विजयः उपयोगिता, स्वरूप और उपाय ® ३४९ * अभ्यस्त और परिपक्व हो जाता है, वह विश्वसनीय बन जाता है। केवल वयोवृद्ध हो जाने से ही कोई साधक परिपक्व व विश्वसनीय नहीं हो जाता, परन्तु जो परीषहों की भट्टी में तप कर परिपक्व हो जाता है वही सुदृढ़ एवं विश्वसनीय बन जाता है। मिट्टी का घड़ा जब तक कच्चा होता है, आँवे में पक नहीं जाता, तब तक वह जल-धारण के योग्य नहीं होता, न वह अन्य चीजों के रखने योग्य माना जाता है। जब वह आँवे में तप कर पक्का हो जाता है, तभी पानी या अन्य वस्तुओं के रखने योग्य स्थिर व विश्वसनीय माना जाता है। यही कारण है कि संवर-निर्जरा की साधना में परिपक्वता के लिए प्रतिकूलता और अनुकूलता, दोनों प्रकार की आँच में से तपना जरूरी है। इससे शरीर और मन, इन्द्रियाँ और अंगोपांग, वचन और व्यवहार सभी परिवार तप कर परिपक्व हो जाते हैं, परीषहों से जरा भी विचलित न होकर उन पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। ‘उत्तराध्ययनसूत्र' के परीषह-विभक्ति अध्ययन में कहा गया है-'इन बाईस परीषहों के विषय में सुनकर, जानकर, इन्हें जीतकर, इन पर अभिभूत (हावी) होकर साधक अपनी किसी भी चर्या में इन परीषहों के उपस्थित होने पर इनसे विनिहत (प्रतिहत) नहीं होता।"२ यही परीषह-विजय की उपयोगिता और साधक के लिए अनिवार्यता है। गृहस्थ-साधक के जीवन में भी परीषह-विजय की उपयोगिता केवल साधु-जीवन में ही नहीं, गृहस्थ-साधक (श्रावक) के जीवन में भी पद-पद पर परीषह-विजय की उपयोगिता है। सामायिक, पौषध, देशावकाशिक एवं यथासंविभाग व्रत में तथा तीन गुणव्रतों और पाँच अणुव्रतों के पालन में भी संवर-निर्जरा-साधक गृहस्थ अपरिपक्व या अनभ्यस्त होता है, प्रतिकूलता और अनुकूलता की आँच में तपा हुआ नहीं होता है तो विचलित हो सकता है। अन्य अनेक व्यावहारिक जीवन में कष्ट-सहिष्णुता की साधना से वंचित गृहस्थ मन में अत्यधिक दुःखी अथवा अहंकारी होकर असातावेदनीय आदि कर्मों का बन्ध कर लेता है। इसलिए गृहस्थ-साधक के जीवन में भी परीषह-विजय जरूरी है। - जैनदर्शन के मूर्धन्य विद्वान् पं. बेचरदास जी कहते थे-"जब हमें स्वतंत्रतासंग्राम के सिलसिले में जेल जाना पड़ता और वहाँ सोने-बिछाने के लिए मामूली दरी मिलती, तब हम यही समझते कि हम पौषधव्रत में हैं। स्वेच्छा से पौषध स्वीकार करने से वह कष्ट हमें कष्ट ही महसूस नहीं होता था। १. 'जीवनविज्ञान' से भावांश ग्रहण, पृ. ११४ २. जे भिक्खू सोच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय पुट्ठो नो विनिहन्नेज्जा। -उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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