________________
ॐ परीषह-विजय : उपयोगिता, स्वरूप और उपाय ॐ ३४७ 8
श्रमणत्व की सुदुष्करता के पीछे तात्पर्य 'उत्तराध्ययनसूत्र' के मृगापुत्रीय अध्ययन में जो श्रमणधर्म में पालनीय समभाव, अहिंसा-सत्यादि पंचमहाव्रतों आदि को सुदुष्कर एवं कठोर बताया है, वहाँ इस सुदुष्करता, दुश्चरणता एवं कठोरता का मूल यावज्जीवन, आत्म-संयम है, कायक्लेश नहीं। इन महाव्रतों को पालन करने में जो कष्ट उत्पन्न होते हैं, उन्हें सहन करना, काया को क्लेश या मन को संक्लेश देना नहीं है, अपितु अपने स्वीकृत व्रत, नियम, त्याग-प्रत्याख्यान आदि के रूप में स्वीकृत रत्नत्रयात्मक धर्म में अविचलित रहने के लिए है।
कायक्लेश और परीषह-सहन दोनों भिन्न-भिन्न हैं इस पर से यह स्पष्ट है कि कायक्लेश और परीषह दोनों पृथक्-पृथक् हैं। तत्त्वार्थ की श्रुतसागरीया वृत्ति में इन दोनों की भिन्नता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है-कायक्लेश स्वेच्छा से ज्ञानपूर्वक किया जाता है और परीषह हैमोक्षमार्ग पर अविचल रहने हेतु समागत कष्ट को समभावपूर्वक सहना।
कायक्लेश के पीछे भी सापेक्ष दृष्टि ___ महापुराण में आचार्य जिनसेन ने अनपेक्षित कायक्लेश का निषेध और अपेक्षित कायक्लेश में सापेक्ष दृष्टियुक्त विधान किया है। उन्होंने भगवान ऋषभदेव के प्रसंग में इसी सापेक्ष दृष्टि को प्रस्तुत करते हुए कहा है. "मुमुक्षुओं को अपना यह धर्म-पालन सक्षम शरीर व्यर्थ ही कृश नहीं करना चाहिए और न ही उसे प्रवर रसों द्वारा पुष्ट करना चाहिए, अपितु उसे दोष निवृत्ति के लिए उपवासादि तपश्चरण करना चाहिए, साथ ही प्राणधारण के लिए आहार भी ग्रहण करना चाहिए।"२ श्वेताम्बर आचार्यों और मुनिवरों ने भी एकान्त उपवासादि बाह्य तपस्या का भी सापेक्ष दृष्टि से कथन करते हुए कहा है-"वहाँ तक ही बाह्य तप करना चाहिए, जब तक मन में दुर्ध्यान, संक्लेश न हो तथा इन्द्रियाँ क्षीण होकर एकदम निढाल न हो जाएँ।"३ ‘उत्तराध्ययनसूत्र' में भी आहार और अनशन (उपवासादि) का एकान्त विधान नहीं है, अपितु छह कारणों से आहार करने की और छह कारणों से आहार त्याग करने की अनुमति दी गई है।
१. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र, अ. १९, गा. २५-३० २. (क) तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीया वृत्ति, अ. ९/१९
(ख) महापुराण २०/१-१० ३. तदेव हि तपः कार्यं दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत्।
येन योगा न हियेत, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च॥ ४. उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २६, गा. ३२-३४
-महोपाध्याय यशोविजय जी म.