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ॐ परीषह-विजय : उपयोगिता, स्वरूप और उपाय 8 ३४५ *
अनुसरण करने वाले श्रमणोपासक (श्रावक) का जीवन भी विविध कष्टों और बाह्य तपस्याओं के कारण रूखा-सूखा नीरस बन गया है। वे भी अपेक्षाकृत कठोर जीवनयापन के पथ पर चलने लगे हैं। इससे श्रमणों और श्रमणोपासकों का सहज सुखमय जीवन नष्ट हो जाता है, कायक्लेश का ही प्राधान्य दिखाई देता है। 'दशवैकालिक' में कहा है-समभावपूर्वक अव्यथितभाव से जो देह दुःख सहता है, वह उसके निर्जरारूप महाफल का कारण होता है।"१
स्वैच्छिक कष्ट-सहन भी कब परीषह-विजय, कब नहीं ? इन सब शंकाओं का सापेक्ष दृष्टि से समाधान यह है कि आगमों में श्रमणों , और श्रमणोपासकों के लिए काया को तपाने, कृश करने, जीर्ण करने एवं मन पर स्वेच्छा से नियंत्रण करके सुख-सुविधाओं से मुख मोड़ने का जो विधान है, वह कथन एकान्त नहीं है। सभी श्रमणों और श्रमणोपासकों (गृहस्थ श्रावकों-उपासकों) के लिए उपवास और आतापनादि कायक्लेश (काया को कष्ट में डालना) अनिवार्य नहीं है। जिनकी रुचि ध्यान, मौन, कर्मक्षय, प्रायश्चित्तकरण, कामादिदोष-निवारण तथा काया को परीषह-उपसर्ग-सहन-सक्षम बनाने की होती है; वे ही इसे अपनाते हैं। किन्तु वह स्वैच्छिक कष्ट-सहन भी जड़ता-मूढ़तापूर्वक, निरुद्देश्य या अप्रसन्नतापूर्वक न हो तथा जो कष्ट-सहन सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दृष्टि एवं सम्यक्तप के साथ होता है, जिसके साथ समभाव की अखण्ड ज्योति प्रज्वलित रहती है, जो धैर्य, प्रसन्नता और उत्साह के साथ होता है, वही कष्ट-सहन परीषह-विजय की कोटि में आता है। जो वह किसी स्वार्थ, प्रलोभन या पद-प्रतिष्ठा-प्राप्ति के लिए होता है, अथवा जो कष्ट इनाम पाने, प्रशंसा पाने और कीर्ति पाने की लालसा से सहन किया जाता है, वह अज्ञान कष्ट है, बालतप है, निरुद्देश्य अकाम कष्ट-सहन है। ऐसे कष्ट-सहन से कदाचित् पुण्य हो सकता है; किन्तु वह भी स्वेच्छा से, प्रसन्नतापूर्वक हो तभी। किन्तु उससे कर्मक्षय नहीं हो पाता। 'व्यवहारभाष्य' में कहा गया है-साधना में मनःप्रसाद ही कर्मनिर्जरा का मुख्य कारण है।
. ज्ञानपूर्वक कायक्लेश तप कष्ट-सहन क्षमता बढ़ाने हेतु है दूसरा समाधान यह है कि छह प्रकार के बाह्य तपों में जो कायक्लेश नामक तप है, उसका अभिप्राय भी अज्ञानपूर्वक निरर्थक ही काया को कष्ट देना नहीं है। कायक्लेश तप का प्रयोजन स्वधर्म-पालन में काया को कष्ट सहने में सक्षम तथा अभ्यस्त करना है। यह कष्ट-सहिष्णुता की क्षमता को बढ़ाने का प्रयोग है। प्रतिदिन
१. देहदुक्खं महाफलं। २. जो सो मणप्पसादो जायइ सो निज्जरं कुणति।
-दशवैकालिक, अ. ८, गा. २७
-व्यवहारभाष्य ६/१९०