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________________ आत्म-मैत्री : कर्मों से मुक्ति का ठोस कारण अपने सुखों और दुःखों के कर्तृत्व और विकर्तृत्व के लिए स्वयं जिम्मेदार कर्मविज्ञान जीवन के अनुभूत सत्यों को जगत् के समक्ष प्रस्तुत करता है। मनुष्य विचारशील प्राणी है। उसका जीवन प्रारम्भ में अपने से सम्बद्ध रहता है। किन्तु बाद में ज्यों-ज्यों वह विभिन्न अवस्थाएँ पार करता है, त्यों-त्यों उसकी जीवनदृष्टि सम्यक् न हो तो वह विपरीत राह पकड़ लेता है। क्रोध, अहंकार, मद, लोभ, माया, ईर्ष्या, द्वेष, राग, मोह आदि विकार उसकी आत्मा को घेर लेते हैं, विषय-वासनाओं, कामनाओं और सुख-सुविधाओं को अपनाकर उसकी आत्मा पर सघन आवरण छा जाते हैं-अज्ञान, मोह, कुदर्शन, भ्रान्ति और दुर्बोध के। ये सब उसकी आत्मा को अशुभ कर्मों से जकड़ लेते हैं। उन पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों के उदय में आने पर दुःख, पीड़ा, रोग, बुढ़ापा, चिन्ता, शत्रुता, आसक्तिजन्य व्याकुलता आदि फल भोगते समय वह निमित्तों को, भगवान को, काल को या कर्म को कोसता है। वह उस समय यह नहीं सोचता, ये दुष्कर्म मेरे ही द्वारा किये गये हैं, मैं ही कर्मों के इन दुःखद फलों के लिए जिम्मेवार हूँ। मैंने ही अपनी आत्मा को दुरात्मा और शत्रु बनाया, विपरीत मार्ग में प्रस्थान करके। कर्म बाँधते समय यदि मैं सावधान रहता तो सन्मार्ग की ओर प्रस्थित करके अपनी आत्मा को मित्र बना सकता था। इसीलिए. भगवान महावीर ने अपने केवलज्ञान के प्रकाश में अनुभूत सत्य अभिव्यक्त किया-“आत्मा ही अपने सुखों और दुःखों का कर्ता और विकर्ता (विनाशक) है। आत्मा ही अपना मित्र है और आत्मा ही अपना शत्रु है।"१ . व्यवहार में मैत्री की छह कसौटियाँ संसार में स्थूलदृष्टि वाले लोग अपने स्वार्थ के लिए, अपने मोहवश दूसरे को दे-लेकर, खा-खिलाकर, अपने बाह्य सुख-दुःख की बातें एक-दूसरे के सामने प्रगट १. अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च ॥ -उत्तराध्ययन, अ. २०, गा.३७
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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