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________________ * २९० कर्मविज्ञान : भाग ६ दिल में अपने-पराये या स्वत्वमोह की भावना नहीं होती। इसी तरह सच्ची करुणा बदला नहीं चाहती। किसी ने करुणाभावना से प्रेरित होकर किसी दुःखित, पीड़ित का दुःख निवारण करने का प्रयत्न किया। उससे उसको आत्म सन्तुष्टि तथा प्रसन्नता मिलती है। उसने अपनी सेवा से पीड़ित को आत्मीय बना लिया अथवा अज्ञानतावश प्रविष्ट दुर्व्यसनों का त्याग करा दिया, इतना पुण्यलाभ क्या कम है ? साथ ही करुणा-साधक में आत्मौपम्य सिद्धान्त को क्रियान्वित करने की शक्ति प्राप्त हुई, आत्मा में करुणा गुण का विकास हुआ, यह आध्यात्मिक लाभ भी कम नहीं हैं। इस प्रकार करुणाभावना से सामाजिक, आध्यात्मिक उपलब्धियाँ प्रत्यक्ष हैं। सम्यग्दृष्टि सम्पन्न को तप, त्याग के कारण करुणाभावना से संवर तथा अध्यात्मभावना के कारण निर्जरा का भी लाभ अनायास ही प्राप्त होता है । माध्यस्थ्यभावना क्यों और क्या है ? संसार में प्रत्येक प्राणी कहीं राग से बँधता है, कहीं द्वेष से । एक या दूसरे प्रकार से वह बँधता जाता है। कर्मविज्ञान ने बंधन के अनेक प्रकार और रूप बताए हैं, साथ ही उसने इन सर्वबन्धनों से छूटने का एक सरलतम मार्ग बताया है - माध्यस्थ्यभाव । ‘सर्वार्थसिद्धि’ के अनुसार–माध्यस्थ्यभावना का अर्थ है - राग-द्वेषपूर्वक पक्षपात. न करना । 'व्यवहारसूत्र' की टीका में मध्यस्थ का अर्थ किया है - जो राग और द्वेष के मध्य में रहता है, अर्थात् सर्वत्र राग-द्वेष से अलिप्त रहता है, वह मध्यस्थ है। 'आवश्यकसूत्र निर्युक्ति' में कहा है - जो अति उत्कट राग-द्वेष से रहित होकर समचित्त रहते हैं, वे मध्यस्थ हैं । २ ऐसे दुष्टों, दुर्जनों के प्रति माध्यस्थ्यभावना की कर्मबन्ध से बचने का मार्ग संसार में सदा सर्वत्र अच्छे ही अच्छे व्यक्ति या पदार्थ मिलें, अनुकूल अनुकूल प्राणी से वास्ता पड़े, ऐसा असम्भव है। जो व्यक्ति समभावी साधक है, किसी के प्रति स्वयं द्वेष या वैर-विरोध अथवा पक्षपात रखता है, उसके प्रति भी साम्प्रदायिकता, जातीयता आदि पूर्वाग्रहों अथवा अपने किसी तुच्छ स्वार्थ से प्रेरित १. 'समतायोग' से संक्षिप्त भाव ग्रहण, पृ. ६४-६५, ६८ २. (क) रागद्वेषपूर्वक - पक्षपाताभावो माध्यस्थ्यम् । - सर्वार्थसिद्धि (ख) मध्ये राग-द्वेषयोरन्तराले तिष्ठतीति मध्यस्थः, सर्वत्राराग- द्विष्टे ! - व्यवहारसूत्र टीका (ग) अत्युत्कटराग-द्वेष - विकलतया समचेतसो मध्यस्थाः । (घ) सर्वेषु सत्त्वेषु समचित्ते । - प्रवचन सारोद्धार ६५ द्वार
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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