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________________ ® भाव-विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ * २४९ 8 (आत्मा का) कुछ भी नहीं बिगाड़ते। बल्कि ये तो मुझे कर्मनिर्जरा का सुन्दर अवसर देकर मेरी सहायता करते हैं।" इस अनुप्रेक्षा से उन्होंने छह महीनों में ही समस्त कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करके सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर लिया। यह है-निर्जरानुप्रेक्षा की परम उपलब्धि ! आलोचना-निन्दना-गर्हणा एवं आत्म-चिन्तन से महानिर्जरा - 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार-जो साधक शरीर को मोह-ममत्वजनक, विनश्वर और अपवित्र मानकर, शरीर के प्रति मूर्छा का त्याग करके दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप, निर्मल, नित्य और सुखजनक आत्म-स्वरूप में लीन होता है, उसके बहुत ही निर्जरा होती है। जो साधक अपने आत्म-स्वरूप में तत्पर होकर अपने द्वारा पूर्वकृत दुष्कृतों की आलोचना, निन्दना (पश्चात्ताप) और गर्हणा करता है। गुणवान व्यक्तियों का प्रत्यक्ष और परोक्ष. बहुमान करता है तथा अपने मन और इन्द्रियों को वश में कर लेता है, उसके भी प्रभूत निर्जरा होती है। जो साधक वीतरागभावरूप (सुख-दुःख में समभावरूप) सुख में लीन होकर बार-बार (शुद्ध) आत्मा का स्मरण-चिन्तन करता है एवं इन्द्रिय-विषयों और कषायों पर विजय पा लेता है, उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है। जो साधक पूर्वोक्त प्रकार से निर्जरानुप्रेक्षी बनकर निर्जस के अवसरों को नहीं चूकता, उसका जन्म सफल है। उसके ही पापकर्मों की निर्जरा (क्षय) होने से पुण्यकर्म का अनुभाग बढ़ जाता है। फलतः वह स्वर्गादि-सुखों का उपभोग करके क्रमशः मोक्ष (सर्वकर्ममुक्तिरूप) प्राप्त कर लेता है। निष्कामभाव से की हुई सकामनिर्जरा से मुख्यतः तीन उपलब्धियाँ होती हैं(१) आत्म-शुद्धिकरण, (२). चेतना की मूलस्वरूप में अवस्थिति, और (३) व्याधि, आधि और उपाधि से हटकर समाधि में अवस्थिति। १. देखें-अन्तकृद्दशांगसूत्र के वर्ग ६, अ. ३ में अर्जुन-अनगार का वर्णन २. जो चिंतेइ सरीरं ममत्तजणयं विणस्सरं असुई। दसण-णाण-चरित्तं सुहजणयं णिप्फले णिच्चं ॥११॥ अप्पाणं जो जिंदइ गुणवंताणं करेदि बहुमाणं। मण-इंदियाण वि जई, स सरूव-परायणो होदि ॥११२॥ तस्स य सहलो जम्मो, तस्स वि पावस्स णिज्जरा होदि। तस्स वि पुण्णं वड्ढइ, तस्स य सोक्खं परो होदि॥११३॥ . जो सम-सुक्ख-णिलीणो, वारं वारं सरेइ अप्पाणं। इंदिय-कसाय-वि जइ, तस्स हवे णिज्जरा परमा॥११४॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा १११-११४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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