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________________ ४ २४६ कर्मविज्ञान : भाग ६ 'समयसार' में कहा है- निर्जरानुप्रेक्षक बार-बार अनुचिन्तन करता है कि "कर्मों के उदय का विपाक ( रसानुरूप फलदान - सामर्थ्य) जिनेश्वर देव ने अनेक ' प्रकार का कहा है। कर्मविपाक से हुए वे भाव मेरे नहीं हैं। मैं तो एकमात्र ज्ञायकभाव (ज्ञाता) स्वरूप हूँ।” 'द्रव्यसंग्रह टीका' में कहा गया है - "निज - परमात्मानुभूति ( स्वशुद्धात्मानुभव) बल से निर्जरा करने के लिए साधक दृष्ट, श्रुत, अनुभूत विषयभोगों की आकांक्षादिरूप विभाव-परिणाम के त्यागरूप संवेग और वैराग्यरूप परिणामों (अध्यवसायों) सहित रहता है। इस प्रकार निर्जरानुप्रेक्षा की सार्थकता है।"१ निर्जरा के प्रकार, स्वरूप और निर्जरानुप्रेक्षा यह निर्जरा सकाम और अकाम के भेद से दो प्रकार की है। केवल कर्मक्षय के प्रयोजन से, स्वेच्छापूर्वक ज्ञान और विधिपूर्वक तप द्वारा कर्मों का क्षय करना सकामनिर्जरा है। बिना इच्छा और उद्देश्य के पूर्वबद्ध कर्म के उदय में आने पर (हाय-हाय करते, विलाप करते, दूसरे को कोसते हुए) फल भुगताकर स्वभावतः जीव से अलग हो जाना अकामनिर्जरा है । निर्जरानुप्रेक्षा में सकामनिर्जरा ही ग्राह्य है।. इसी को प्रकारान्तर से स्पष्ट करने के लिए 'बारस अणुवेक्खा' में कहा गया है - वह (पूर्वोक्त) निर्जरा दो प्रकार की है - स्वकालपक्वा (स्वकालप्राप्ता) और तप द्वारा की जाने वाली। इनमें से पहली निर्जरा तो चारों गतियों के जीवों के होती है और दूसरी केवल व्रतधारी साधु- श्रावकों के होती है । 'सर्वार्थसिद्धि' में "वेदना-विपाक को निर्जरा कहा है। वह दो प्रकार की है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला । नरकादि गतियों कर्मकाल के विपाक (उदय में आंकर कर्मफलोन्मुख होने ) से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है, जो अकुशलानुबन्धा होती है तथा परीषहादि के जीतने पर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा होती है। वह दो प्रकार की होती हैशुभानुबन्धा और निरनुबन्धा । इस प्रकार निर्जरा के गुण-दोषों का चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है ।" जिस प्रकार कुछ आम्रफल डाल पर स्वतः पक जाते हैं और कुछ को पलाल आदि में रखकर प्रयत्नपूर्वक पकाया जाता है, इसी प्रकार कर्म का विपाक भी स्वभावतः और उपायतः दोनों प्रकार से होता है । २ १. (क) उदय - विवागो विविहो कम्माणं वण्णिओ जिणवरेहिं । दुमज्झ सहावा, जाणगभावो दु अहमिक्को ॥ - समयसार मू. १९८ (ख) निज-परमात्मानुभूति- बलेन निर्जरार्थ दृष्टश्रुतानुभूत-भोगाकांक्षादि-विभाव-परिणामपरित्यागरूपैः संवेग-वैराग्य-परिणामैर्वर्तते । इति निर्जरानुप्रेक्षागता । - द्रव्यसंग्रह टीका ३५/११२ २. (क) जैन सिद्धान्त बोल- संग्रह, भा. ४, बोल ८१२, पृ. ३६९ (ख) सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का (पत्ता), तवेण कयमाणा । चादुगतीणं पढमा, वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥ - बा. अ. ६७ तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा १०४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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