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ॐ भाव-विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ ® २४५ *
रागादि या कषायादि की संचित वृत्तियों को बाहर निकाला जा सकता है, उनका रेचन किया जा सकता है। रेचन का मतलब केवल भीतर के संचित विजातीय तत्त्वों को बाहर निकालना ही नहीं है, अपित उन्हें संचित करने वाले तंत्र को भी समाप्त कर देना है।
निर्जरा का विशद स्वरूप, कार्य और प्रकार . जिस प्रकार पक्षी रज से भरी हुई पांखों को फड़फड़ाकर प्रकम्पित करके रजकणों को झाड़ देता हैं, उसी प्रकार बाह्याभ्यन्तर तपोमूलक निर्जरा के द्वारा कर्मरज को प्रकम्पित करके साधक झाड़ देता है। इस दृष्टि से पूर्वबद्ध कर्मों को उदय में आने से पूर्व या उदय में आने के पश्चात् स्वेच्छा से, निष्कामभाव से झाड़ देना भी निर्जरा है।“कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार-“निर्जरा का स्वरूप हैज्ञानावरणीयादि समस्त कर्मों की शक्ति अर्थात् फलदान सामर्थ्य का विपाक होकर उदय होना, जिसे अनुभाग कहते हैं। अतः कर्मों का उदय में आकर (फल भुगवाकर) तुरन्त खिर जाने-झड़ जाने को कर्मनिर्जरा समझो।" संक्षेप में संसार की हेतुभूत कर्मसंतति का अंशतः क्षय होना निर्जरा है। 'शान्तसुधारस' के अनुसार-वास्तव में कर्मनिर्जरणस्वरूप वाली निर्जरा एकरूप वाली है, किन्तु कारण भेद (द्वादश प्रकारीय तप) होने से, कार्यभेद (निर्जरारूप कार्य) के भी बारह प्रकार बताए गए हैं।
उसी की निर्जरा सार्थक होती है -- निर्जरानुप्रेक्षा उसी की सार्थक होती है, जो निदान (इन्द्रिय-विषयभोगों की वांछा) रहित एवं अहंकाररहित होकर, वैराग्यभावना = संसार तथा देह के भोगों से विरक्त परिणामों से सम्यग्ज्ञानपूर्वक बारह प्रकार का तप यथाशक्ति-यथारुचि करता है, करने की तीव्र इच्छा रखता है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले अनुप्रेक्षक की कर्मनिर्जरा के लिए प्रायः सभी प्रवृत्ति होती हैं।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा १०३.
१. 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. ७६ . २. (क) वही, पृ. ७६. (ख) सव्वेसिं कम्माणं सत्ति विवाओ हवेइ अणुभाओ।
तदणंतरं तु सडणं कम्माणं णिज्जरा जाण॥ ३. . निर्जराऽपि द्वादशधा, तपोभेदैस्तथोदिता।
कर्मनिर्जरणात्मा तु सैकरूपैव वस्तुतः॥ ४. (क) बारसविहेण तवसा णियाणरहिअस्स णिज्जरा होदि।
वेरग्ग-भावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स॥ (ख) एवं ह्यस्यानुसारतः कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति।
-शा. सु. र. ३
-का. अ.१०२ -सर्वार्थसिद्धि ९/७/४१७