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* १८० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ *
जैन-कर्मविज्ञान में भावना, अनुप्रेक्षा आदि शब्द एकार्थक हैं .
जैन-कर्मविज्ञान की भाषा में उन्हें भावना, अनुप्रेक्षा, जप, धारणा, संस्कार अथवा अर्थचिन्ता भी कहा जाता है। वर्तमान युग में भावना और अनुप्रेक्षा, ये दो शब्द जैनजमत् में विशेष प्रसिद्ध हैं। वैसे देखा जाये तो इनके तात्पर्यार्थ में कोई अन्तर नहीं है। भावना का एक अर्थ होता है-एक विषय पर एकाग्रतापूर्वक चिन्तन या ध्यान। किसी साधक ने कोई ध्येय, अध्यात्मलक्षी विषय या कोई आत्म-विकासक भाव मन में निश्चित किया है, उसका तदनुसार पुनः-पुनः चिन्तनमनन एवं तन्मयतापूर्वक निदिध्यासन करता है, यही तो भावना है। किन्तु वह शुद्ध अध्यात्मलक्षी हो तथा सम्यग्ज्ञान और अभ्यास से युक्त हो, तभी सच्चे माने में वह भावना कहलाती है। भावना का निर्वचन यह भी है-भाव्य व्यक्ति या पदार्थ के प्रति एकाग्र एवं तन्मय हो जाना। यही धारणा का अर्थ है-जिस वस्तु की धारणा करनी है या की गई है, उसके प्रति तल्लीन एवं दत्तचित्त हो जाना। जप या ध्यान का अर्थ भी यह है कि जप्य या ध्येय वस्तु के प्रति एकतान, एकनिष्ठ हो जाना। साधक जिस विषय या व्यक्ति के लिए भावना करता है, जिसका पुनः-पुनः अभ्यास करता है, उसी रूप में उसका 'संस्कार' बन जाती है। इसलिए इसे 'संस्कार' भी कहा जाता है। इसे 'अर्थचिन्ता' इसलिए कहा गया है कि आगमों या धार्मिक ग्रन्थों का पारायण (स्वाध्याय) करने के बाद उनमें प्रतिपादित अर्थों = विषयों पर एकाग्रतापूर्वक चिन्तन करना अनिवार्य होता है। अर्थचिन्ता किये बिना वस्तुतत्त्व सम्यक् प्रकार से हृदय और बुद्धि में जमता नहीं है। अनुप्रेक्षा के विविध अर्थ और लक्षण ___ इसका आगमप्रसिद्ध शब्द है-अनुप्रेक्षा। प्रेक्षा का अर्थ होता है-प्रकर्ष रूप से देखना। अर्थात् एकाग्र और स्थिर होकर किसी शास्त्रोक्त तत्त्व या तथ्य को बारीकी से देखना। ‘अनु' उपसर्ग प्रेक्षा के पूर्व लगने से इसका अर्थ होता है-आगमों, धर्मग्रन्थों या अध्यात्मलक्षी पुस्तकों में पढ़ी हुई, सुनी हुई या समझी हुई किसी बात को, पढ़ने-सुनने-समझने के पश्चात् देखना-अनुचिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। 'धवला' में इसका इसी से मिलता-जुलता लक्षण किया गया है-सुने हुए अर्थ का श्रुत (शास्त्र) के अनुसार चिन्तन करना अनुप्रेक्षण है। ‘सर्वार्थसिद्धि' में अनुप्रेक्षा का लक्षण इस प्रकार है-जाने हुए अर्थ (तथ्य या विषय) का मन में पुनः पुनः १. 'अमूर्त चिन्तन' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण, पृ. ५ २. जैसे कि अनुयोगद्वारसूत्र हारिवृत्ति में कहा गया है
"ग्रन्थार्थानुचिन्तनं अनुप्रेक्षा।" . -वृत्ति, पृ. ६0 ३. 'आगममुक्ता' (उपाध्याय केवल मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. १३९