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ॐ १६८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ *
सत्याणुव्रत के लक्षण
इसी प्रकार अणुव्रती की अपेक्षा से स्थूलवचन की अपेक्षा से 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में कहा गया है-“स्थूल असत्य न तो स्वयं बोले और न दूसरों से वूलवावे तथा जिन-वचन से विपरीत वचन यथार्थ भी हो (किन्तु अहिंसा विरुद्ध हो तो), उसे न तो स्वयं बोले, न दूसरों से बुलवावे। इसे सत्पुरुष स्थूल सत्याणुव्रत कहते हैं।' 'वसुनन्दि श्रावकाचार' के अनुसार-राग या द्वेष से झूठ वचन नहीं बोलना चाहिए तथा प्राणियों का घात करने वाला सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए, इसे दूसरा स्थूलव्रत जानना चाहिए। ‘कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में इसे अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है-"जो हिंसाकारक, कठोर, निष्ठुर वचन नहीं बोलता, न ही दूसरों की गुप्त बात को प्रगट करता है तथा हित-मित वचन बोलता है, सब जीवों को सन्तोषकारक एवं धर्मप्रकाशक वचन बोलता है, वह सत्याणुव्रत का धारक है।"१ .
सत्य को जीवन में उतारने के लिए चार स्थानों से बाँधा गया है ।
इसके साथ ही वाणी पर नियंत्रण करने के लिए विधेयात्मक रूप में भाषासमिति का तथा निषेधात्मक रूप में वचनगुप्ति का विधान किया है। इस प्रकार सत्य को जीवन में उतारने के लिए आचार्यों ने वाणी के माध्यम से उसे चार स्थानों पर बाँधा है-(१) सत्य महाव्रत, (२) सत्य अणुव्रत, (३) भाषासमिति,
और (४) वचनगुप्ति के रूप में। निश्चयदृष्टि से सत्य धर्म का लक्षण ___ आध्यात्मिक दृष्टि से यह एकांगी तथ्य है, सत्य केवल वाणी तक ही सीमित नहीं है। वाणी तो सिर्फ पुद्गल का पर्याय है, जबकि सत्य आत्मा का धर्म हैं।
१. (क) स्थूलमलीकं न वदति, न परान् वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावाद-वेरमणम्॥
-र.क. श्रावकाचार ५५ (ख) अलियं ण जंपणीमं पाणिवहकरं तु सच्चवयणंपि। रायेण य दोसेण य, णेयं बिरियं वदं थूलं ॥
-वसु. श्राव. २१० (ग) हिंसावयणं ण वयदि, कक्कसवयणं पि जो ण भासेदि।
निट्ठरं वयणं पि तहा ण भासदे, गुज्झवयणंपि॥३३३॥ हिद-मिदवयणं भासादि संतोसकरं तु सव्वजीवाणं।
धम्मपमासणवयणं अणुव्वदी होदि सो बिरियो॥३३४॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३३३-३३४ २. (क) 'धर्म के दस लक्षण' से भावांश ग्रहण, पृ. ७४
(ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६३२