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________________ दशविध उत्तम धर्म उत्तम आत्म-धर्म सीमाओं में बँधा हुआ नहीं। मानव-जीवन में धर्म ही ऐसा तत्त्व है, जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की समस्याओं को सुलझा सकता है। परिवार में ही नहीं, विश्व के सभी घटकों में, प्राणीमात्र में शान्ति, सुरक्षा और सौहार्द स्थापित कर सकता है, बशर्ते कि उसके शुद्ध और त्रिकालाबाधित सत्य को यथार्थ रूप में समझा जाय और तदनुसार श्रद्धापूर्वक उसका आचरण किया जाए। इस आत्म-धर्म को किसी सम्प्रदाय, मत, पन्थ, जाति, देश, काल एवं क्षेत्र की संकीर्ण सीमाओं में आबद्ध-प्रतिबद्ध नहीं किया जा सकता। धर्म सार्वभौम है, वह प्राणीमात्र के लिए मंगलमय है, विश्वकल्याणकारक है और प्राणीमात्र के योगक्षेम का निर्वाहक है। इसी आत्म-धर्म के सन्दर्भ में उत्तम धर्म के क्षमा से लेकर शौच तक चार रूपों का विशद रूप से विवेचन कर आए हैं। अब उसके सत्य आदि शेष छह रूपों के विषय में प्रकाश डालेंगे। (५) उत्तम सत्य : स्वरूप तथा साधना मार्ग सत्य ही भगवान है जैनाचार्यों ने सत्य के सम्बन्ध में बहुत ही गहराई से चिन्तन किया है। 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में सत्य का माहात्म्य बताते हुए कहा है-“तं सच्चं खु भगवं।" -वह सत्य ही भगवान है। महात्मा गांधी ने सत्य को वचन की सीमा में ही आबद्ध न करके मन और कार्य के रूप में सत्याचरण को महत्त्व दिया था और कहा था"सत्य ही ईश्वर है।" महाव्रतों में और अणुओं में उसे द्वितीय स्थान दिया गया है। १. 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भावं ग्रहण, पृ. ६३२ ।। २. प्रश्नव्याकरण, दूसरा संवरद्वार
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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