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________________ ॐ संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म ® १४३ 2 पाँचवीं कसौटी-मान लो, इतने पर भी मन में गुस्सा न करे, किन्तु जब उसे अमानुषिक यातनाएं देने लगे, विविध प्रकार से पीड़ा देने लगे, तब भी क्रोध न आए और मन से कहे कि आपमें जितनी सामर्थ्य हो, कसर निकाल लो, यह उत्तम क्षमा का एक प्रकार समझा जा सकता है। छठवीं कसौटी-कोई दुष्ट किसी को उसके घर में आकर नाना प्रकार से सताकर, पीड़ा देकर चला जाए, उस समय तो चुपचाप सह लिया और घर में रहकर उपचार कर लिया, मरहम-पट्टी कर ली, परन्तु कोई उसे घर से ही निकाल दे, तब भी आँखों में जरा-सी रोष की क्षीण रेखा भी न आए, तो समझा जा सकता है, यह क्षमा है। सातवीं कसौटी-घर से निकाल देने पर भी वह सोचता है, शरीर सशक्त और स्वस्थ है तो कहीं पर भी मेहनत-मजदूरी करके जीवन-निर्वाह कर लेंगे। परन्तु शरीर पर भी प्रहार करके उसके काट दे, नष्ट कर दे या नष्ट करने लगे, तब भी क्रोध न आए, तो समझा जा सकता है, उत्तम क्षमा है। परन्तु उस समय मन में गाँठ बाँध ली, उसके प्रति वैर बाँध लिया तो समझ लो, वह उत्तम क्षमा नहीं है। सुदर्शन सेठ पर अभया रानी द्वारा झूठा दोषारोपण लगाया गया, उसकी लोगों में भर्त्सना की गई, आक्रोश बढ़ा, उसे राजा द्वारा शूली की सजा दी गई, तब भी उसके मन में अभया रानी, जनता या राजा के प्रति मन में भी रोष, द्वेष का भाव पैदा नहीं हुआ, यह उत्तम क्षमा की परीक्षा में सफलता है। क्षमा से अपार आत्मिक लाभ और क्रोध से अपार क्षति वस्तुतः देखा जाए तो क्षमा अंदर से उत्पन्न होती है, वह आत्मा का स्व-भाव है। क्रोध बाहर से आता है, वह कर्म का स्व-भाव है। सम्यग्दृष्टिपूर्वक क्षमा के आचरण से आत्मा की, आत्म-गुणों की, आत्म-स्वभाव की कोई हानि या क्षति नहीं होती, बल्कि संवर और सकाम-निर्जरा होती है-पूर्वबद्ध अशुभ कर्म के उदय में आने पर समभाव से, शान्ति से, निराकुलता से भोग लेने पर और होती है आत्मशुद्धि। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जिन कर्मों को करोड़ों भवों में नष्ट नहीं कर पाता, ज्ञानी और सम्यग्दृष्टि क्षमा धुरंधर आत्मा उन्हें समभावपूर्वक सहन करके एक श्वासोच्छ्वास मात्र समय में क्षय कर डालते हैं। इसके विपरीत क्रोध से अपार क्षति होती है, आत्मा की अशुभ कर्मबन्ध, वैर परम्परा, परस्पर संक्लेश, कलह, भय, मानसिक तनाव और दुःसाध्य मानसिक रोग आदि से महान् क्षति का कारण क्रोध ही है। क्षमाशील व्यक्ति निर्भय, निश्चिन्त होता है। उसे शरीर तक के नष्ट १. 'धर्म के दस लक्षण' (डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल) से भाव ग्रहण, पृ. २४-२६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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