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________________ ॐ १३६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ 8 के बिना कदापि हल हो सकती है? 'उत्तराध्ययनसूत्र' में धर्म का माहात्म्य बताया गया है-“बुढ़ापा और मृत्यु के तेज प्रवाह में बहते हुए जीव के लिए धर्म ही एकमात्र द्वीप है, प्रतिष्ठा (आधार) है, गति और उत्तम शरण है।” कमलावती रानी ने राजा से कहा-“राजन् ! एकमात्र धर्म ही जगत् में रक्षक (त्राता) है, दूसरा कोई भी रक्षा करने वाला नहीं है।" धर्म ही अबन्धुओं का बन्धु है। वही सच्चा आत्म-धन है, वही शाश्वत और अविनाशी है। धर्म कल्पवृक्ष है, कामधेनु है,. चिंतामणि है। धर्म ही सच्चा मित्र है, परलोक में भी साथ जाने वाला है।" 'वैदिक उपनिषद्' में कहा है-"धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा।"-धर्म समग्र विश्व का आधार है। इसी से अभ्युदय होता है। निःश्रेयस भी। धर्म ने ही सारे जगत् कोसंसार के प्राणियों को टिकाये रखा है। धर्म न होता तो जगत् में सर्वत्र हिंसा, मारकाट या दूसरों को मारकर, सताकर जीने की वृत्ति-प्रवृत्ति होती। आज संसार की अधिकांश जनता स्वाभाविक आत्म-धर्म का त्याग करने के कारण ही दुःख और संकट में है। धन और साधनों की प्रचुरता होने पर भी व्यक्ति बेचैन है, अशान्त है, त्रस्त है। धर्म का आचरण छोड़ देने के करण ही संसार में आधि-भौतिक, आधि-दैविक तथा आध्यात्मिक दुःख बढ़ गए हैं। इसीलिए भारतीय ऋषि-मुनियों को कहना पड़ा-“धर्म से नष्ट-भ्रष्ट हो जाने पर (आहत करने पर) वह उस व्यक्ति का पतन = नाश कर देता है और धर्म की रक्षा करने पर वह व्यक्ति की रक्षा करता है।"२ धर्म जीवन का प्राण है, संजीवनी बूटी है, मनुष्य को अपने अन्तिम लक्ष्य (कर्मों से तथा सर्वदुःखों से मुक्तिरूप मोक्ष) तक पहुँचाने वाला एकमात्र सम्यक् धर्म है। 'प्रवचनसार' में धर्म का लक्षण बताया है-“वस्तु का स्वभाव धर्म है। इसका अर्थ है-शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना। इसलिए धर्म से परिणत आत्मा ही धर्म है।"३ १. (क) जरामरणवेगेणं बुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तम।। -उत्तराध्ययन, अ. २३, गा. ६८ (ख) एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं, न विज्जइ अन्नमिहेह किंचि। -वही, अ. १४, गा. ४० (ग) मोक्षशास्त्र' (गुजराती टीका) (रामजीभाई दोशी), अ. ९, सू. ७ विवेचन, पृ. १९५ (घ) यतोऽभ्युदय-निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। -वैशेषिकदर्शनम् २. धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः।। ३. (क) वस्तु-स्वभावत्वाद् धर्मः-शद्ध-चैतन्य-प्रकाशनमित्यर्थः॥७॥ ....... ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एव भवति।।८॥ -प्रवचनसार ता. वृ. ७-८ (ख) अप्पा अप्पम्मि रओ, रायादिसु सयलदोस परिचत्तो। संसारतरणहेदु धम्मो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठो।।८५॥ मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो॥८३॥ __-भावपाहुड मू. ८५, ८३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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