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________________ ॐ संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म * १३५ * ऐसी वस्तु है अथवा कौन-सा ऐसा जादू, मंत्र-तंत्र है, जिसके अपनाने से या जिसकी साधना-आराधना करने से अथवा किसी स्वार्थ, राग-द्वेष, कषाय आदि के कालुष्य से रहित एकमात्र शुद्ध रूप में जिसके पालन-आचरण करने से अथवा किसी भी प्रकार की सांसारिक, इहलौकिक-पारलौकिक कामना, नामना, प्रसिद्धि या प्रशंसा के बिना उसकी साधना-आराधना करने से वास्तविक सुख-शान्ति, आनन्द, मस्ती और निश्चिन्तता प्राप्त हो सकती है ? इन सब का भगवान महावीर ने एक शब्द में उत्तर दिया-'धर्म'।१ धर्म ही वह वस्तु है, जो जीवन के लिए सर्वोत्कृष्ट मंगल है। वही पदार्थों तथा इन्द्रियों और विषयों से अप्रतिबद्ध, अक्षय एवं अव्याबाध सुख-शान्ति और आनन्द प्राप्त कराने वाला है। 'चाणक्यनीतिसूत्र' में स्पष्ट कहा है-सुख का मूल धर्म है। ‘कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में भी क्षमादि दशविध धर्म को ‘सौख्यसार' कहा है। धर्म की विशेषता बताते हुए आगमों में कहा है“वह धर्म इहलोक-परलोक में आत्म-हित के लिए है, सुख के लिए है, निःश्रेयस (कर्ममुक्तिरूप कल्याण) के लिए है, (आत्मा में) क्षमता (सहिष्णुता) पैदा करने के लिए है, परलोक में या जहाँ भी जाए, वहाँ अनुगामी (पीछे-पीछे चलने वाला) होता है।" आचार्य समन्तभद्र ने भी इसी तथ्य का समर्थन किया है “देशयामि समीचीनं धर्म कर्म-निवर्हणम्। संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।।" -धर्म वह है, जो प्राणियों को (पूर्वोक्त) संसार के (या सांसारिक) दुःख से उठाकर उत्तम सुख (वीतराग-सुख, आनन्द या आत्मिक एवं अव्याबाध) को धारण कराता है। वही धर्म कर्मों का विनाशक (कर्मनिरोधक तथा कर्मक्षयकारक) एवं समीचीन (सम्यक्) है। जो लोग कहते हैं कि धर्म की-शुद्ध धर्म की जगत् को क्या आवश्यकता है? उनके समक्ष उपर्युक्त प्रतिप्रश्न प्रस्तुत है-क्या दुनियाँ में फैली हुई अराजकता, अंधाधुंधी, आपाधापी या पूर्वोक्त एकान्तवादों की शरण-ग्रहणता या भ्रष्टाचार, अनाचार, अन्याय-अनीति का दुराचरण, बलात्कार आदि की समस्या विशुद्ध धर्म १. “धम्मो मंगलमुक्किट्ठ।"-धर्म उत्कृष्ट मंगल है। “मगं-मुखं लातीति मंगलम्।" २. (क) सुखस्य मूलं धर्मः। -चाणक्यनीतिसूत्र, सू. २ (ख) सो चिय दहप्पयारो खमादिभावेहिं सुक्खसारेहि। ते पुणभणिज्जमाणा मुणियव्वा परम भत्तीए।। -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३९३ ३. (क) से इह-परलोगहियाए सुहाए निस्सेसाए खमाए अणुगामियत्ताए भवइ। (ख) रत्नकरण्डक श्रावकाचार, श्लो. २
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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