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________________ बनाता है। वर्तमान से अतीत में ले जाकर द्रष्टा को स्रष्टा से परिचित करा देता है। अपने दुःख-सुख की जिम्मेदारी स्वयं पर डालता है और स्वयं ही उसका समाधान करने का मार्ग बताता है। उसके फल या परिणाम भुगतने के समय शान्त और संतुलित रहना सिखाता है। जैनदर्शन का 'कर्मवाद' यद्यपि एक स्वतंत्र सिद्धान्त है, परन्तु वास्तव में वह आत्म-सापेक्ष है। कर्म एक कृति है, क्रिया है या क्रिया द्वारा आकृष्ट विशेष प्रकार के पुद्गल समूह है। किन्तु इसका कर्ता आत्मा है। इसलिए कर्म पर आत्मा की सत्ता स्वीकार की गई है। कर्म को करने वाला आत्मा है। आत्मा अपने संकल्प से कर्म करता है। इसलिए फल का उत्तरदायी कर्म नहीं, किन्तु आत्मा है। आत्मा अच्छे कर्म करेगा तो अच्छे फल पायेगा। बुरे कर्म करेगा तो बुरे फल। सुचिन्ना कम्मा सुचिन्ना फला भवंति, दुचिन्ना कम्मा दुचिन्ना फला भवंति। आत्मा के द्वारा किया हुआ अच्छा कर्म अच्छा फल देता है। बुरा कर्म बुरा फल देता है। कर्म का कर्तृत्व आत्मा पर आने से जगत् में सामाजिक एवं नैतिक न्याय भी अखण्डित चलता है। इस प्रकार जैनदर्शन ने संसार की विचित्रता का, संसार के सुख-दुःख, उन्नतिअवनति के कारण कर्म को मानकर भी उस कर्म की बागडोर आत्मा के हाथ में रखी है। आत्मा अपने संकल्प, अपनी भावना और धारणा के अनुसार कर्म करने में स्वतंत्र है। वह अपनी स्थिति, परिस्थिति में परिवर्तन ला सकता है। प्रगति कर सकता है। जीवन में परिवर्तन और प्रगति का सिद्धान्त ही साधना और तपस्या का मूल्य स्थापित करता है। इसलिए जैनदर्शन का कर्म-सिद्धान्त लचीला है, वैज्ञानिक है और आत्मा के अधीन है। लोग कहते हैं, जीव कर्म के अधीन है, परन्तु यह एकांगी दृष्टि है, वास्तव में कर्म जीव के अधीन है। कर्म क्रिया है, जीव का है। जीव तपस्या, ध्यान, स्वाध्याय, भावना, अनुप्रेक्षा द्वारा कर्म का निरोध करता है, कर्म का क्षय करता है और अशुभ कर्म से शुभ और शुद्ध की ओर गतिशील बनता है। कर्म-विज्ञान के पिछले भागों में जहाँ कर्मानव के कारण और उसकी बंध स्थिति आदि का विस्तारपर्वक वर्णन हआ है. अब इस छठे भाग में कर्म से मुक्त होने की प्रक्रिया संवर और निर्जरा धर्म पर विस्तृत रूप में चिन्तन किया गया है। संवर के अन्तर्गत दस श्रमण धर्म और मैत्री आदि शुभ भावनाओं/अनुप्रेक्षाओं पर विवेचन किया है। क्योंकि जब तक कर्म प्रवाह का निरोध नहीं होगा, तब तक आत्मा कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं हो सकेगा। कर्म सरोवर में आता जल प्रवाह जब तक रुकेगा नहीं, तब तक उस जल को सुखाकर सरोवर को खाली करने का प्रयास सफल नहीं हो सकता। संवर धर्म-कर्म प्रवाह को रोकता है। इसलिए इस भाग में ॐ १० ॐ
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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