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ॐ संवर और निर्जरा का द्वितीय साधन : पंच-समिति 0 ११३ 0
समितियाँ पाँच ही क्यों? समितियाँ पाँच हैं-(१) ईर्यासमिति, (२) भाषासमिति, (३) एषणामिति. (४) आदान-निक्षेपसमिति, और (५) परिप्ठापना (उत्सर्ग) समिति । 'समवायांगसूत्र में भी इनका उल्लेख है।' कर्ममुक्ति की साधना करने वाले साधक को विहार, आहार, भिक्षा, नीहार (मलादि-विसर्जन) तथा अन्यत्र किसी प्रयोजन से विविध प्रकार की चर्या करने के लिए गमन-आगमन आदि करना पड़ता है. सोना-जागना. उटनाबैटना, चलना-फिरना आदि चर्या भी करनी पड़ती है। आवश्यकता के अनुसार मंगल पाट सुनाने, प्रवचन करने, भाषण-सम्भाषण करने, ग्वाध्याय करने या वाचना देने, अन्य किसी प्रकार की आवश्यक बातचीत करने के लिए वोलना भी पड़ता है। शरीर टिकाने तथा संयमपूर्वक जीवन-निर्वाह करने के लिए उसे आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, पाट, चौकी, पुस्तक-ग्रन्थ, लेखन-सामग्री आदि आवश्यक पदार्थ भी लेने पड़ते हैं, भोज्य-पेय पदार्थों का सेवन भी करना पड़ता है। दैनिकचर्या के लिए उसने जो भी वस्त्र, पात्र, रजोहरण, पट्टा आदि उपकरण रखे हैं, उन्हें उठाना, रखना या सँभालना भी पड़ता है एवं शरीर से निःसृत होने वाले मल, मूत्र, थूक, कफ, पसीना, लींट आदि तथा भूक्तशेष अन्नादि, फूटे-फटे पदार्थों को डालना भी पड़ता है। इन और ऐसी आवश्यक प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध या निषेध साधक अवस्था में हो नहीं सकता। 'पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय' में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है-सम्यक प्रकार से गमन-आगमन, सम्यक् भाषा (उत्तम हित-मितरूप वचन), योग्य (एषणीय व कल्पनीय) आहार का ग्रहण-सेवन, पदार्थों का यतनापूर्वक ग्रहण-निक्षेपण, भूमि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके मल-मूत्रादि का विसर्जन करना (इन पाँच मुख्य प्रवृत्तियों को सम्यक् प्रकार से करने के लिए ही) वास्तविक पंच-समिति है। इन पाँच समितियों में साधक की सभी आवश्यक प्रवृत्तियों का समावेश हो जाता है।
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(ख) अभेटानुपचार-रत्नत्रयमार्गेण परमधर्मिणमात्मानं सम्यगिति परिणतिः समितिः। अथवा ___निज परमतत्त्व-निग्त-सहज-परमवोधादि परमधर्माणां संहतिः समितिः।।
- नियमसार ता. वृ. ६१ (ग) निश्चयेनानन्त-ज्ञानादि-स्वभाव निजामान सम अयनं गमनं परिणमनं समितिः।
-द्र. सं. टीका ३५/१०१३ १. (क) ईया भापैपणा दान-निक्षेपोत्याः समितयः। (ख) पंच ममिई आ पण्णत्ता. तं. ईग्यिामिई. भासासमिई. एसणामिई आयाण-भण्ड-मत्तनिक्खवणा-समई. उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-परिटावणियामिई।
-समवायांग, समवाय ५