________________
११० कर्मविज्ञान : भाग ६
संयमन, नियमन एवं निश्चलन होता है। इन तीनों गुप्तियों से संवर का प्रयोग. तो सहज है। अशुभ योग से निवृत्त होना शुभ योग - संवर है । मगर त्रियोगगुप्ति द्वारा निर्जरा तभी होती है जब इन तीनों से आत्म-भावों में प्रवृत्त हों ! दूसरी दृष्टि से कहें तो - मन को संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ, इन तीनों प्रकार से विषयों (इन्द्रियों और मन के मनोज्ञ - अमनोज्ञ विषयों में) तथा कषायों में प्रवृत्त होने से रोकना अथवा कम से कम गलत रूप से मन को मनन- चिन्तन- मन्थन - निर्णय करने से रोकना मन को अशुभ रूप से प्रवृत्त होने से रोकना मनोगुप्ति है। इसी प्रकार वचन को संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ, इन तीनों प्रकार से तीव्र - मन्द-मध्यम रूप से सावद्य वचन-प्रयोग से, निरर्थक- प्रयोग से तथा चारों विकथाओं, गप्पों, वाक्कलह, व्यर्थ विवाद आदि अशुभ वचनयोग में प्रवृत्त होने से रोकना वचनगुप्ति है। इसी प्रकार काया को भी निरर्थक चेष्टा, सावद्य-प्रयोग, किसी पर रोष - आवेश में आकर थप्पड़े, मुक्के, लाठी, शस्त्र आदि से प्रहार करने से रोकना कायसंवर है। काया के विविध अंगोपांगों हाथ, पैर, वाणी, इन्द्रियाँ तथा अन्य अवयवों पर संयम रखना भी कायगुप्ति है, जैसा कि 'दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया है । '
१. हत्थसंजए, पायसंजए, वायसंजए संजईदिए । अज्झप्परए सुसमाहिअप्पा
11.
- दशवैकालिकसूत्र १०/१५