SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय ॐ १०७ * सकतीं। कायगुप्ति के साथ सम्यग्दृष्टि, संवर-निर्जरा तत्त्वबोध तथा विषयासक्ति या कषायादि के वश या किसी लौकिक लाभ या प्रसिद्धि के वश न होने की शर्त है। बाह्य इन्द्रियों के निरोध के साथ अन्तरंग का निरोध करना भी जरूरी है, तभी सच्चे भाने में कायोत्सर्गमूलक कायगुप्ति हो सकती है। ऐसे अज्ञानतिमिर में फँसे लोग तीर्थंकर की आज्ञा का लाभ भी नहीं प्राप्त कर सकते। ___ कायगुप्ति यदि विधिपूर्वक की जाए तो उससे कई आध्यात्मिक लाभ प्राप्त हो सकते हैं। भगवान से पूछा गया-“भंते ! कायगुप्ति से जीव को क्या लाभ होता उत्तर में उन्होंने कहा-"कायगुप्ति से जीव संवर अर्जित कर लेता है। संवर से काय गुप्त होकर आने वाले पाणसव का निरोध कर लेता है।"२ कायगुप्ति की साधना का मार्ग सरल नहीं कठिन है, जब तक मन एवं वचनयोग पर नियंत्रण करने का अभ्यास नहीं हो जाता, तब तक पूर्ण रूप से कायगुप्ति नहीं होती। कायगुप्ति से पूर्व मनगुप्ति और वचनगुप्ति को साध लेना इसलिए आवश्यक है कि मन-वचन स्थिर होने पर काय की स्थिरता आसान हो जाती है। फिर तीनों योग समान रूप से स्थिर होकर आत्मा के भीतर कर्मों की निर्जरा प्रारम्भ कर सकते हैं। ___ वास्तव में गुप्ति सच्चे माने में तभी गुप्ति कहलाती है, जब वह इन्द्रिय-विषयों में, पदार्थों में अथवा किसी सजीव-निर्जीव पदार्थ के प्रति राग, द्वेष, मोह करने में, पर-भावों अथवा कषाय-नोकषाय आदि विभावों में भटकती हुई मन-वचन-काया की त्रिवेणी को, तत्काल वहाँ से हटाकर या रोककर आत्माभिमुखी अन्तर्मुखी बनाती है और इस प्रकार माता की तरह संयमी आत्मा की रक्षा करती है, असंयम में भटकने से बचाती है और गुप्ति से निर्जरा भी तभी होती है, जब वह आत्मा का, आत्म-हित का सर्वतोमुखी चिन्तन करती है। - गुप्ति-पालक के लिए संवर के तत्काल प्रयोग का निर्देश गुप्ति-पालक धीर साधक ‘दशवैकालिकसूत्र' की इन दो गाथाओं को सदैव दृष्टिगत रखता है१. (क) णेत्तेहिं पलिछिण्णेहिं आयाण सोतगठिते वाले, अव्वोछिण्ण-बंधणेअणभिक्ते संजोए। तमंसि अविजाणओ आणाए लंभोणत्थि। ___ -आचारांगसूत्र १/४/४/१४४ (ख) 'आगममुक्ता' से भाव ग्रहण, पृ. २१२ २. (प्र.) कायगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? (उ.) कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ। संवरेणं कायगुत्तो पुणो पावासव-निरोहं करेइ। __-उत्तराध्ययनसूत्र २९/५६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy