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________________ गणधर गौतम ने भगवान महावीर से पूछा - इन प्राणियों में परस्पर इतना विभेद क्यों है ? तो भगवान महावीर ने इतना स्पष्ट और सटीक उत्तर दिया"गोयमा ! कम्मओ णं विभत्तीभावं जणयइ !" - हे गौतम ! कर्म के कारण यह भेद है ? 'कर्म' ही प्रत्येक प्राणी के व्यक्तित्व का घटक है। कर्म ही संसार की विचित्रता का कारण है। विभिन्न दर्शनों में कर्म मान्यता यद्यपि कर्म के विषय में संसार के सभी धर्म व दर्शनों ने चिन्तन किया है और अपने-अपने तर्क व युक्तियों के आधार पर संसार की इस विभिन्नता का समाधान दिया है। पश्चिमी विचारकों, दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों ने इस विचित्रता एवं विभिन्नता का मुख्य कारण वातावरण, वंशानुक्रम व सामाजिक परिस्थितियाँ माना है। भारत के आस्तिक दर्शनों ने इस चिन्तन के आंतरिक कारणों पर भी चिन्तन किया है। वेदान्ती इसका कारण अविद्या, बौद्ध वासना, सांख्य क्लेश, न्याय, वैशेषिक - अदृष्ट तथा जैनधर्म ने इसे कर्म कहा है । ईश्वरवादी दर्शन संसार की भिन्नता का मूल ईश्वर को मानते हैं परन्तु वे भी कर्म को अवश्य मानते हैं। ईश्वरवादी से जब पूछा गया कि मनुष्य का अच्छे और बुरे कर्म के फल को कौन भुगताता है, तो उत्तर मिला - ईश्वर ही सबको फल भुगताता है । किन्तु प्रश्न फिर भी खड़ा रहता है, ईश्वर तो दयालु है, समदृष्टि है, न्यायी है, फिर किसी को अच्छा और किसी को बुरा फल क्यों भुगताता है ? तो ईश्वरवादी का उत्तर मिलता है - मनुष्य जब जैसा कर्म करता है, ईश्वर उसको वैसा ही फल प्रदान करता है। इस प्रकार ईश्वरवादी भी कर्म को माने बिना व्यवस्था की संगति नहीं बैठा सकता, उसे मनुष्य और ईश्वर के बीच 'कर्म' को मानना ही पड़ा। इसका मतलब हुआ - 'कर्मवाद' के बिना संसार की विचित्रता का कोई समाधानकारक उत्तर नहीं मिल सकता । विपाकसूत्र' में वर्णन आता है - इन्द्रभूति गौतम मृगापुत्र ( मृगालोढा ) को देखने के लिए गये। वह विजय क्षत्रिय राजा की रानी मृगादेवी की कुक्षि से जन्मा था । रानी की अन्य सन्तानें बहुत सुन्दर और दर्शनीय थीं, परन्तु मृगालोढा एक पत्थर के गोलमटोल आकार का लोढा जैसा था। न आदमी, न पत्थर ! उसका मुखद्वार और मलद्वार एक ही था । उसके शरीर से इतनी भयंकर बदबू आती थी कि कोई उसके पास खड़ा भी नहीं रह सकता था । यह विचित्र और अत्यन्त करुणाजनक स्थिति देखकर गौतम जैसे ज्ञानी भी द्रवित हो गये । गौतम ने भगवान के पास आकर पूछा-' - भन्ते ! राजघराने में जन्मा यह प्राणी इतना दारुण / असह्य दुःख क्यों है ? भोग र १. प्रथम ध्ययन * ८४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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