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संवर और निर्जराका प्रथम साधन : गुप्तित्रय
आत्मारूपी गाड़ी के लिए सक्षमता आदि का विचार आवश्यक
किसी भी कार को खरीदते समय व्यक्ति यह देखता है कि इसके ब्रेक ठीक हैं या नहीं? इसकी कितनी स्पीड (रफ्तार) है? इसकी गति में कहीं रुकावट तो नहीं आती? इसके पहिये तथा इसकी लाइट ठीक है या नहीं? क्योंकि इन चीजों के ठीक होने पर ही वह कार मंजिल (गन्तव्य स्थान) तक यात्री को सही सलामत पहुँचा सकती है। इसी प्रकार कर्ममुक्ति के यात्री को भी यह देखना होता है कि कर्मों से सर्वथा मुक्ति की मंजिल तक पहुँचने के लिए आत्मारूपी गाड़ी गति करने योग्य है या नहीं? उसमें गुप्तित्रयरूपी ब्रेक है या नहीं तथा समितिरूपी सम्यक गति-प्रगति (प्रवृत्ति) है या नहीं? परीषहरूपी पर्वतीय चढ़ाई को झेलने में वह सक्षम है या नहीं ? उसके अनुप्रेक्षारूपी लाइट (चिन्तनज्योति) है या नहीं? आसानी से चलने (गति करने के लिए) उसके दशविध उत्तमधर्मरूपी दस पहिये हैं या नहीं ? इतना होने पर ही आत्मारूपी गाड़ी संवर-निर्जरारूपी या ज्ञानादि रत्नत्रयरूपी मोक्षमार्ग (कर्ममुक्तिमार्ग) पर सरपट चलकर कर्ममुक्ति की मंजिल तक पहुँचा सकती है। संवर और निर्जरा के उपार्जन के लिए सात प्रबल साधन
यही कारण है कि कर्मविज्ञान मर्मज्ञ तत्त्वार्थसूत्रकार नये कर्मों के आसव (आगमन) के निरोध (संवरण) और आत्मा में पूर्व-प्रविष्ट कर्मों के आंशिक क्षय (निर्जरण) द्वारा कर्मों के संवर और निर्जरा के लिये निम्नोक्त सात प्रबल साधनों का निरूपण करते हैं-“स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजय-चारित्रैः; तपसा निर्जरा च।"१ वह संवर और निर्जरा, गुप्ति, समिति, दशविध उत्तमधर्म (श्रमणधर्म), अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र के द्वारा तथा बाह्याभ्यन्तर तप के द्वारा सम्पन्न होती है। अर्थात् ये सात साधन या प्रबल उपाय संवर और निर्जरा द्वारा कर्ममुक्ति के यात्री के लिए कर्म से मुक्त होने में सहायक होते हैं।
१. तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. २-३