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________________ पहले कौन ? संवर या निर्जरा ३८१ ३ आत्मारूपी सरोवर में पहले से प्रविष्ट मलिन व अशुद्ध पापपंकयुक्त कर्मजल को अपनी निर्जरा-साधना से निकालकर आत्म-सरोवर को शुद्ध, परिष्कृत एवं निर्मल तथा सुदृढ़, शान्त, निश्छिद्र एवं पुष्ट बनाएगा। यानी वह संवर को प्राथमिकता देकर तीव्र रूप से आते हुए नये कर्मों को रोक देगा, तत्पश्चात् लगे हाथों वह कर्मों का क्षय (निर्जरा) करने का अभ्यास भी करेगा। चिकित्सा क्षेत्र में रोग को दबाने और मिटाने की उभय दृष्टि चिकित्सा क्षेत्र में ये दोनों दृष्टियाँ मिलती हैं। एक दृष्टि है - रोग को दवाने की और दूसरी दृष्टि है - रोग को मिटाने की, उसे जड़मूल से समाप्त करके शरीर को शुद्ध और सुदृढ़ बनाने की । यद्यपि ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में रोग को दबा दिया जाता है। आयुर्वेदिक एवं यूनानी चिकित्सा पद्धति भी किसी हद तक रोग को दबाने, एक वार शान्त कर देने के पक्ष में हैं। होम्योपैथिक चिकित्सा प्रणाली शरीर में प्रविष्ट रोगोत्पादक विजातीय द्रव्य को एक बार उभारकर बाहर निकालती है। फिर उसके तन-मन को पुष्ट करती है । अधिकांश आधुनिक शिक्षित और सभ्य लोगों की मान्यता है कि रोग को दबाने से एक बार तो रोगी को राहत मिल जाती है, रोग शान्त हो जाता है, परन्तु कोई भी निमित्त मिलने पर वह पुनः उभर आता है । ऐलोपैथिक चिकित्सा में एक रोग को दबाने के लिए दवा दी जाती है, वह रोग दब जाता है, किन्तु दूसरा रोग उत्पन्न हो जाता है। रोग को दबाने पर यह खतरा बना रहता है कि पता नहीं कब यह रोग पुनः उभर आए। इसलिए कतिपय प्राकृतिक चिकित्साविज्ञ रोग को सहसा दबाने के पक्ष में नहीं हैं । कभी-कभी रोग को तत्काल दबाना आवश्यक होता है पहली दृष्टि के अनुसार कभी-कभी रोग को तत्काल दबाना आवश्यक होता है। यदि हम दूसरी दृष्टि के अनुसार रोग को मिटाने तक प्रतीक्षा करें और रोगी को दवा काफी लम्बे अर्से तक देते रहें तो तब तक या तो रोगी का प्राणान्त हो • सकता है अथवा वह बहुत ही कमजोर हो जाएगा, उसमें उठने-बैठने की शक्ति भी नहीं रहेगी। अतः उस समय ऐसा सोचना ठीक नहीं होगा कि रोगी का स्थायी इलाज ही कराया जाए; क्योंकि स्थायी इलाज होने तक यदि रोगी रहेगा ही नहीं तो स्थायी इलाज किसका होगा ? अतः किसी हद तक तीव्र वेग से आते हु रोग को तत्काल दबाने का उपाय अनिवार्य होता है। अतः सर्वप्रथम रोग की तीव्रता को मिटाना या कम करना आवश्यक होता है। तत्पश्चात् दूसरी दृष्टि की भी आवश्यकता है, ताकि रोग को जड़मूल से उखाड़ने और रोगी के शरीर को रोगों
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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