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________________ ७४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ कहा गया है-जो कर्मप्रकृति जिस हेतु को लेकर उदय में आती है, उसका नाम उसी विपाक की अपेक्षा से रखा गया है। विपाक के पूर्वोक्त चार स्थानों की अपेक्षा से कर्मप्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-(१) क्षेत्रविपाकी, (२) जीव-विपाकी (३) भव-विपाकी और (४) पुद्गल-विपाकी। विपाक के दो भेदों पर आधारित : हेतुविपाकी और रसविपाकी प्रकृतियाँ पंचसंग्रह में विपाक के दो भेद किये गए हैं-हेतुविपाक और रसविपाक। इन विपाक-द्वय की अपेक्षा से कर्म-प्रकृतियाँ भी दो प्रकार की होती हैं-हेतु-विपाकी और रस-विपाकी। पुद्गलादिरूप हेतु के आश्रय से जिस कर्मप्रकृति का विपाकफलानुभव होता है, वह प्रकृति हेतु-विपाकी कहलाती है, और रस के आश्रय से यानी रस (अनुभाग) की मुख्यता को लेकर निर्दिश्यमान विपाक जिस प्रकृति का होता है, वह प्रकृति रस-विपाकी कहलाती है। इन दोनों प्रकार के विपाकों के भी प्रत्येक के पुनः चार-चार भेद होते हैं। अर्थात्-क्षेत्र, जीव, भव और पुद्गल रूप हेतु के भेद (निमित्त) से हेतु-विपाकी कर्मप्रकृति के चार भेद हैं। यथा-(१) क्षेत्रविपाकी, (२) जीवविपाकी, (३) भवविपाकी और (४) पुद्गलविपाकी। इसी प्रकार रस-विपाकी कर्मप्रकृति के भी एकस्थान-रसा, द्विस्थान-रसा, त्रिस्थान-रसा और चतुःस्थांन-रसा, ये चार भेद हैं। इनका विवेचन हम 'रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध' नामक प्रकरण में कर आए हैं। __ यहाँ हेतुविपाकी कर्मप्रकृतियों की विवक्षा अभीष्ट प्रस्तुत निबन्ध में कर्मप्रकृतियों के विपाक (रसोदय) के हेतुओं-स्थानों के आधार से होने वाले पूर्वोक्त क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, भव-विपाकी और पुद्गलविपाकी की प्ररूपणा विवक्षित है। इस वर्णन के द्वारा यह बताना अभीष्ट है कि कौन-कौनसी प्रकृतियाँ पुद्गल-विपाकी आदि हैं और क्यों हैं? १. (क) दुविहो विवागओ पुण हेउविवागाओ रसविवागाओ। एक्केक्का वि य चउहा, जओ च सद्दो विगप्पेणं ॥-पंचसंग्रह ३/४४ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५, (मरुधरकेसरीजी म.), पृ. ७३, ७४ (ग) नाम समेच्च हेउं विवाग-उदयं उति पगइओ। ता तव्विवागसन्ना, सेसाभिहाणाई सुगमाई ॥-पंचसंग्रह ३/४५ २. रसविपाकी कर्मप्रकृतियों के विस्तृत बोध के लिए देखें, कर्मविज्ञान खण्ड ७, भा. ४ का 'रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध' प्रकरण। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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