SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ दूसरा अनादि - सान्त भंग और पुनः मिथ्यात्व में गिरकर उक्त प्रकृतियों का बन्ध करने और पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर बन्ध नहीं करने पर चौथा सादि - सान्त भंग होता है। इस प्रकार ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में तीसरे सादि - अनन्त भंग के सिवाय शेष अनादि-अनन्त, अनादि - सान्त और सादि - सान्त, ये तीन भंग होते हैं। धुवोदया प्रकृतियों में घटित होने वाले भंग अब ध्रुवोदया प्रकृतियों में भंगों को घटित करते हैं- ध्रुवोदया प्रकृतियों में पहला अनादि-अनन्त और दूसरा अनादि - सान्त, ये दो भंग होते हैं । ध्रुवोदया २७ प्रकृतियों के नाम यथास्थान बतलाये जा चुके हैं। उनमें से मिथ्यात्व - प्रकृति में विशेषता है। इसलिए उसके भंगों के बारे में अलग से कथन किये जाने से शेष छब्बीस प्रकृतियों के बारे में स्पष्टीकरण करते हैं। निर्माण, स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, ज्ञानावरण-पंचक, अन्तराय - पंचक और दर्शनावरण- चतुष्क, इन छब्बीस ध्रुवोदयी प्रकृतियों में पहला अनादि - अनन्त भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा घटित होता है । क्योंकि अभव्य जीवों के ध्रुवोदया प्रकृतियों के उदय का न तो आदि है और न अन्त ही होता है। दूसरा अनादि - सान्त भंग भव्य जीवों की अपेक्षा घटित होता है। पांच ज्ञानावरण, पांच अन्तराय और चार दर्शनावरण, इन चौदह प्रकृतियों का उदय बारहवें गुणस्थान तक तो जीवों को अनादिकाल से है, लेकिन बारहवें गुणस्थान के अन्त में जब इनका विच्छेद हो जाता है, तब वह उदय अनादि - सान्त कहलाता है। इसी तरह निर्माण, स्थिर, अस्थिर आदि शेष बची हुई १२ प्रकृतियों का अनादि उदय तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान के अन्त में विच्छिन्न हो जाता है, तब उनका उदय अनादिसान्त कहलाता है। इस प्रकार मिथ्यात्व के सिवाय शेष ध्रुवोदया प्रकृतियों में केवल दो ही भंग घटित हो सकते हैं - अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि - अनन्त और भव्य जीवों की अपेक्षा अनादि - सान्त । शेष दो भंग - सादि-अनन्त और सादि - सान्त घटित नहीं होते हैं; क्योंकि किसी प्रकृति के उदय का विच्छेद होने के बाद पुनः उदय होने लगता हो, वह उदय सादि कहलाता है। लेकिन उक्त ध्रुवोदयी प्रकृतियों का उदय-विच्छेद बारहवें तेरहवें गुणस्थान के अन्त में हो जाने पर पुनः उनका उदय नहीं होता है। तथैव उन गुणस्थानों के प्राप्त हो जाने पर जीव कभी नीचे के गुणस्थानों में कतई नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy