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________________ ४६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ गुणस्थान को यहाँ श्रेणि कहा गया है। उक्त श्रेणि पर जिस जीव ने पैर नहीं रखा है, उस जीव के उस प्रकृति का अनादिबन्ध होता है। अभव्य जीवों के ध्रुवबन्ध और भव्य जीवों के अध्रुवबन्ध होता है।" इस परिभाषा से प्रतीत होता है, गोम्मटसार कर्ता ने ध्रुव और अध्रुव शब्द का अर्थ क्रमशः अनन्त और सान्त ग्रहण किया है। क्योंकि अभव्य का बन्ध अनन्त और भव्य का बन्ध सान्त होता है। __ इसी ग्रन्थ में आगे ध्रुवबन्धिनी और अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में इन भंगों को घटित करते हुए बतलाया है कि सैंतालीस ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में उक्त चारों प्रकार के बन्ध घटित होते हैं और शेष ७३ अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में दो ही बन्ध घटित होते हैं-सादि और अध्रुवा ... दो ही भंग क्यों नहीं, अधिक क्यों? : एक शंका-समाधान बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से ४७ ध्रुवबन्धिनी और ७३ अध्रुवबन्धिनी तथा उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में से २७ ध्रुवोदया तथा ९५ अध्रुवोदया हैं। इस प्रकार से बन्धरूपा और उदयरूपा प्रकृतियों के ध्रुव-अध्रुवरूपा होने से प्रश्न होता है-ध्रुवप्रकृतियों का सदैव अनादि से अनन्तकाल तक बन्ध तथा उदय होता रहेगा और अध्रुवप्रकृतियों का सादि-सान्त बन्ध व उदय होता है। इसलिए अनादि-अनन्त और सादि-सान्त ये दो ही भंग होने चाहिए, शेष दो भंगों की क्या आवश्यकता है? ____ इसका समाधान यह है कि संसारी जीव कर्मों का कर्ता और भोक्ता है। अनादि से अनन्त काल तक यह क्रम चल रहा है। लेकिन जो जीव भव्य हैं-मोक्षप्राप्ति की योग्यता वाले हैं; तथा जो जीव अभव्य हैं-मोक्षप्राप्ति की योग्यता वाले नहीं हैं-उनकी अपेक्षा से अनादि-अनन्त आदि चारों भंग होते हैं।२ १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ गा. ५ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. १५ (ख) सादी अबंधबंधे सेढि अणारूढगे अणादी हु। अभव्वसिद्धम्हि धुवो, भव्वसिद्धे अधुवो बंधो॥ १२३ ।। (ग) घाति-ति-मिच्छ-कसाया भेय-तेजगुरुदुगणिमिण-वण्णचओ। सत्तेताल-धुवाणं चदुधा, सेसाणयं तु दुधा ॥ १२४॥ -गोम्मटसार कर्मकाण्ड २. ध्रुवबंधी प्रकृतियों में कर्मग्रन्थ में तीन भंग और गोम्मटसार कर्मकाण्ड में ४ भंग बतलाये गए हैं। इस प्ररूपणान्तर का कारण यह है कि कर्मग्रन्थ में संयोगी (अनादिअनन्त आदि) बताये गये हैं, वे तीन ही बनते हैं, जबकि कर्मकाण्ड में पृथक्-पृथक् बताये गए हैं, वे चार भंग बनते हैं, यथा-सादि और ध्रुव आदि। आन्तरिक दृष्टि से इनमें कोई प्ररूपणाभेद नहीं है।-सं. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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