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________________ ४४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ (२) अनादि-सान्त-जिस बन्ध या उदय की परम्परा का प्रवाह अनादिकाल से बिना व्यवधान के चला आ रहा है, लेकिन आगे व्युच्छिन्न हो जाएगा, उस बन्ध या उदय को अनादि-सान्त कहते हैं। यह भव्य जीवों के होता है। (३) सादि-अनन्त-जो बन्ध या उदय आदि सहित होकर अनन्त-अन्त रहित हो। यह भंग किसी भी बन्ध या उदय में घटित नहीं हो सकता; क्योंकि जो बन्ध या उदय आदि-सहित होगा, वह कदापि अन्तरहित नहीं हो सकता। इसलिए इस विकल्प को ग्राह्य नहीं माना जाता है। (४) सादि-सान्त-जो बन्ध या उदय बीच में रुककर पुनः प्रारम्भ होता है, और कालान्तर में पुनः व्युच्छिन्न हो जाता है। उक्त बन्ध या उदय को सादि-सान्त कहते हैं। यह उपशान्तमोह गुणस्थान से च्युत हुए जीवों में पाया जाता है। ___ इन चारों भंगों को बन्ध में भी लगा लेना चाहिए और उदय में भी। ये भंग ध्रुवअध्रुव बन्ध और ध्रुवोदय-अध्रुवोदय प्रकृतियों के होते हैं, जिनका नामनिर्देश पिछले पृष्ठों में किया जा चुका है, ध्रुवोदयी-अध्रुवोदयी प्रकृतियों के नामनिर्देश आगे किये जाएँगे। बन्ध और उदय प्रकृतियों में उक्त भंगों की प्ररूपणा ध्रुवोदयी प्रकृतियों में पहला अनादि-अनन्त और दूसरा अनादि-सान्त ये दो भंग होते हैं। इसका कारण यह है कि अभव्यों के ध्रुवोदयी प्रकृतियों का कदापि अनुदय नहीं होता है। अतः पहला अनादि-अनन्त भंग मोना है। ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में तीसरे भंग के सिवाय शेष तीन भंग तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में भी तीन भंग होते हैं। दोनों प्रकार की अध्रुवरूपा प्रकृतियों में चौथा भंग होता है। भव्य को उदय तो अनादि से होता है, किन्तु बारहवें तेरहवें गुणस्थान में उनका उदय-विच्छेद हो जाने से उदय नहीं हो पाता। इसी कारण ध्रुवोदयी प्रकृतियों में दूसरा अनादि-सान्त भंग माना गया है। यद्यपि ध्रुवोदयी प्रकृतियों में पहला और दूसरा भंग बतलाया है, तथापि इनमें से कर्मविज्ञान में मिथ्यात्वमोहनीय कर्म की अपनी विशेषता यह है कि उसमें यथायोग्य तीन भंग होते हैं-अनादि-अनन्त भी, अनादि-सान्त भी और सादि-सान्त भी। -पंचम कर्मग्रन्थ गांथा ४ १. (क) भंगा अणाइ साई अणंत संतुत्तरा चउरा॥ (ख) पंचम कर्मग्रन्थ गा. ४ विवेचन, पृ. १०-११ (ग) होइ अणाइ-अणंतो, अणाइसंतो य साइसंतो य। बंधो अभव्व-भव्वोवसंतजीवेसु इह तिविहो। -पंचसंग्रह २१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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