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________________ रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५९१ प्रशस्त द्वेष : स्वरूप और अध्यवसाय प्रशक्त द्वेष भी समझ लेना चाहिए। जैसे शिष्य के द्वारा कोई भूल, गलती, अपराध या दोष होने पर गुरु उसे डांटता है, जरा-सा रोष प्रकट करता है, उसे उपालम्भ देता है या दण्ड- प्रायश्चित्त देता है, इसमें गुरु का शिष्य के कोई विद्वेष नहीं, उसके आत्महित के लिए गुरु ऐसा करता है, यह प्रशस्त द्वेष है। एक चिकित्सक रोगी के फोड़े-फुंसी को जोर से दबा कर मवाद निकालता है या अमुक उदर विकृतिजन्य रोग का ऑपरेशन करता है, रोगी को इससे पीड़ा भी होती है, कभी-कभी वह चीखता - चिल्लाता भी है, परन्तु चिकित्सक का रोगी के प्रति कोई अशुभ द्वेष नहीं, उसका उद्देश्य रोगी का रोग मिटाकर उसे शान्ति पहुँचाना है। इसी प्रकार एक माता अपने बच्चे को चोरी, बदमाशी या गलत आचरण करने डांटती फटकारती है, लाल आँखें कके दो थप्पड़ भी लगा देती है, परन्तु माता के अन्तर् में बच्चे को मारने की अशुभबुद्धि न होकर, उसे सुधारने की हितबुद्धि है, यह शुभ (प्रशस्त) द्वेष है । १ प्रशस्त या अप्रशस्त राग-द्वेष व्यक्ति के शुभाशुभ अध्यवसायों पर निर्भर मूल में, प्रशस्त या अप्रशस्त राग अथवा द्वेष व्यक्ति के शुभ-अशुभ अध्यवसायों-परिणामों पर निर्भर है। प्रशस्तराग या प्रशस्तद्वेष अपनाने से पहले व्यक्ति को जागरूक होकर उसका नापतौल करना चाहिए । प्रशस्तराग के बदले कहीं रागान्धता या मोहान्धता तो नहीं आ रही है अथवा प्रशस्त द्वेष के बदले कहीं अप्रशस्त द्वेष, रोष, रौद्रध्यान आदि की वृत्ति तो नहीं पनप रही है ? ज्यों ही ऐसा होगा कि अप्रशस्त भाव प्रशस्तभावों से ज्यादा - प्रतिशत अधिक हो गए हैं, तब तुरंत संभलना चाहिए और उस अप्रशस्त राग या द्वेष को तुरंत हृदय से निकाल देना चाहिए। अध्यवसाय और परिणाम जीव की लेश्याओं की शुभ-अशुभ तरतमताओं के आधार पर असंख्य या अनन्त प्रकार के बनते हैं । जीवों के अध्यवसायों के भेद पर राग-द्वेष बन्ध के भेद होते हैं । इसी आधार पर अशुभ, अशुभतर और अशुभतम लेश्याओं के अध्यवसाय वाले राग-द्वेष रूप बन्ध बनते हैं। इसके विपरीत जीवों के शुभ, शुभतर और शुभतम लेश्याओं के अध्यवसाय वाले राग-द्वेषरूप बन्ध भी होते हैं । सर्वथा राग-द्वेषरहित होकर वीतराग बनना तो सर्वोत्तम है, किन्तु वर्तमान में वीतरागता -प्राप्ति कठिनतम, दुष्कर लगती हो तो शनैः शनैः उस दिशा में क्रमशः १. कर्म की गति न्यारी भा. ८ से भावांशग्रहण, पृ. २२, २३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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